कभी सोचा है कि Liberal bollywood में पूर्वोत्तर से कोई स्टार क्यों नहीं है? मतलब है कि Racism यहां बहुत मजबूत है

ये बॉलीवुड वाले पंजाब और बंगाल से बाहर कुछ देख ही नहीं पाते हैं

पूर्वोत्तर

भारतीय फिल्म इंडस्ट्री, विशेषकर बॉलीवुड ने विभिन्न क्षेत्रों में लोगों के अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ उठाई है। दिया मिर्ज़ा, जैसी कई हस्तियां हैं, जिन्होंने पर्यावरण के लिए आवाज़ उठाकर अपने करियर में एक ‘नई जान’ फूंकी है। अनुराग कश्यप और अनुभव सिन्हा जैसे कुछ लोग भी हैं, जो नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। अब यह और बात है, कि बॉलीवुड का यह विशेष वर्ग केवल उन्हीं मामलों पर अपनी आवाज़ उठाता है, जो उनके एजेंडे के अनुरूप हो। यदि ऐसा न होता, तो यही बॉलीवुड पूर्वोत्तर भारत से किसी व्यक्ति को लीड रोल में उतारने से क्यों कतराता है?

भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र को स्वतन्त्रता के बाद कई सरकारें नज़रअंदाज़ करती रही, क्योंकि उनके लिए पूर्वोत्तर के लोग राजनीतिक रूप से लाभकारी नहीं थे। काँग्रेस की सरकारों ने पूर्वोत्तर के साथ भेदभाव करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परंतु मोदी सरकार के नेतृत्व में भाजपा ने मानो पूर्वोत्तर का कायाकल्प करते हुए न सिर्फ इसे मुख्यधारा से जोड़ा, अपितु पूर्वोत्तर के विकास में भरपूर योगदान भी दिया।

उधर विविधता पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले बॉलीवुड आज भी पूर्वोतर से आए कलाकारों को लीड रोल देने से हिचकिचाता है, क्योंकि न तो ये उनके एजेंडा के अनुरूप है, और न ही इससे उन्हें बॉक्स ऑफिस पर अच्छी ख़ासी कमाई होगी। उदाहरण के लिए एमसी मेरी कॉम पर बनाई गयी बायोपिक ही देख लीजिये। मेरी कॉम के रोल के लिए प्रियंका चोपड़ा जैसी पंजाबी कलाकार को चुना गया, जिन्होंने उस किरदार के साथ न्याय नहीं किया  यदि इस जगह कोई पूर्वोत्तर का कलाकार होता तो शायद ये फिल्म और जबरदस्त होती। क्या पूर्वोत्तर में अभिनय की प्रतिभा की कमी है? बिलकुल नहीं। बात बस इतनी है कि बॉलीवुड क्षेत्रीय प्रतिभा को पहचानने से मना कर देता है।

बॉलीवुड द्वारा पूर्वोत्तर के साथ भेदभाव करने के पीछे के बहाने भी काफी हास्यास्पद है। वे कहते हैं कि भाषाई समस्या के कारण वे पूर्वोत्तर के लोगों को मुख्य रोल में नहीं ले सकते। इस बात की धज्जियां उड़ाने के लिए कैटरीना कैफ और नोरा फतेही से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है। कैटरीना कैफ तो बिना हिन्दी जाने ही बॉलीवुड में एक जाना माना नाम बन गयी, और कई फिल्मों में उनकी असल आवाज़ भी नहीं सुनाई गयी।

नोरा फतेही, जो मूल रूप से मोरक्को से आती हैं, बॉलीवुड में बड़े आराम से एंट्री पा गयी। उन्हें तो स्ट्रीट डांसर 3डी और बाटला हाउस में अभिनय करने का भी अवसर मिला, और अगस्त में रिलीज़ होने वाली भुज द प्राइड ऑफ इंडिया में इन्हें एक अहम रोल भी दिया गया है।

विचार करने वाली बात तो यह है कि बॉलीवुड के कई डायरेक्टर आए दिन किसी न किसी अभियान में शामिल रहते हैं, चाहे वो अनुराग कश्यप हो या फिर ज़ोया अख्तर। नीरज घायवान ने तो अपने अगले फिल्म के लिए एक अधिसूचना भी जारी की थी, जिसमें केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों एवं अल्पसंख्यकों को ही अवसर प्रदान किया जाएगा।

हमारे देश में पूर्वोत्तर के लोगों को चीनी या जापानी लोगों से confuse किया जाता है, क्योंकि उनके हाव भाव और उनके चेहरे mongoloid प्रजाति से संबंध रखते हैं। इसी कारण से उन्हें कई बार नस्लभेद का भी सामना करना पड़ा है। उन्हें भारतीय समाज का हिस्सा बनाने के लिए बॉलीवुड एक अहम मंच बन सकता था, पर आज तक ऐसा संभव नहीं हुआ। डैनी डेन्जोंगपा, आदिल हुसैन, दीपानिता शर्मा, पत्रलेखा पॉल आदि बॉलीवुड का हिस्सा अवश्य रहे हैं, परंतु उन्हें बहुत कम ही लीड रोल में लिया गया है।

ऐसा भी नहीं है कि पूर्वोत्तर में प्रतिभा की कोई कमी हो। वहाँ पर आकर्षक, प्रतिभाशाली युवाओं की भरमार है। गायकों से लेकर मॉडल और अन्य आर्टिस्ट एक अदद अवसर की प्रतीक्षा कर रहें, जो बॉलीवुड उन्हें देने से कतराता आया है। अब तो नेटफ्लिक्स, एमेज़ोन प्राइम, ज़ी5 जैसे OTT प्लेटफार्म भी आ चुके हैं, जहां इनकी प्रतिभा को अधिक पहचान मिलेगी। ये लोग विशेष रूप से क्षेत्रीय कंटेन्ट को बढ़ावा दे रहे हैं और भारतीय जनता तो ऐसे कंटेन्ट को हाथों हाथ ले रही है।

ऐसे में अब बॉलीवुड ये बहाना नहीं बना सकता है कि पूर्वोत्तर से आये लोगों को प्रमुख रोल में कोई नहीं स्वीकारेगा, क्योंकि अब भारत बदल रहा है। OTT प्लेटफार्म तो अब कोरियाई ड्रामा भी दिखा रही है, तो जनता पूर्वोत्तर के लोगों को क्यों नहीं स्वीकारेगी? समय आ गया है कि बॉलीवुड को अपने एजेंडावादी मानसिकता से बाहर निकलकर वास्तविक विविधता को बढ़ावा देना चाहिए, और पूर्वोत्तर के लोगों को अधिक अवसर इसी कड़ी में एक अहम अभियान बन सकता है।

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