‘ब्रेन ड्रेन’ पर बस बातें होती हैं, पर उत्तराखंड में एक समुदाय ने एक अनोखी मिसाल पेश की है

रंग समुदाय

Globalization के इस युग में दुनिया भर के समुदाय एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होने लगे हैं। अपनी मिट्टी को छोड़कर समृद्धि प्राप्त करने के लिए विदेश जाना और वहां बस जाना अब एक आम बात हो चुकी है। यूं तो यह कोई गलत रीति नहीं है, परंतु इससे स्थानीय भाषा और संस्कृति के विलुप्त होने का खतरा बना रहता है। हालांकि, उत्तराखंड राज्य में एक ऐसा समुदाय भी है, जिसने रिवर्स माइग्रेशन के ट्रेंड को बढ़ावा देने में अपना योगदान दिया है।

इंडो चाइना बार्डर पर दरमा घाटी में स्थित रंग समुदाय इस अनोखे प्रक्रिया के लिए प्रेरणा स्त्रोत माने  जा रहे हैं। कहते हैं कि व्यक्ति कितना भी धनाढ्य क्यों न हो, वो रिटायर होकर भी अपने गांव वापस आता हैं। उदाहरण के तौर पर रंग समुदाय के दो सदस्य हैं गोपाल एस रायपा और सावित्री रायपा, जो दुबई में चालीस वर्षों तक रहने के बावजूद अपने पैतृक निवास दार्चुला और अपने गाँव बुड़ी लौट आए। सावित्री रायपा के अनुसार, “ये तो मानो हमारे डीएनए में व्याप्त है कि हम जहां भी रहे, हम ये कभी नहीं भूलते कि हम कहाँ से आते हैं। जन्म से सभी महत्वपूर्ण रीतियाँ, चाहे वो विवाह हो या मृत्यु, अपने पैतृक स्थान पर ही करनी चाहिए”।

आम तौर पर कहना बहुत आसान है, पर अपने आरामदायक जीवन को छोड़कर उत्तराखंड के इस क्षेत्र में वापिस आना रंग समुदाय के लिए भी कोई आसान बात नहीं है। परंतु इस समुदाय के सदस्यों का कहना है कि यहां के लोग कभी भी अपनी मातृभूमि को हमेशा के लिए छोड़ने की बातें किया नहीं करते। संदेशा रायपा गबरियाल, जो डॉक्टरेट की डिग्री से सम्मानित हैं और जेएनयू में सहायक प्रोफेसर की नौकरी करते हैं, इस विषय पर बताते हैं, “इस क्षेत्र में रहने वाले समुदाय कभी भी अपने जन्मस्थान को पूर्णताया छोड़ने की बात नहीं करते। वर्षों तक व्यापार के लिए तिब्बत, नेपाल, बॉम्बे और कई अन्य जगह जाना सदियों पुरानी प्रैक्टिस रही है। वर्षों के बाद लोग यहाँ वापिस लौटते थे और आज भी यह रीति यथावत है”।

ऐसे ही एक अन्य उदाहरण के रूप में सामने आए श्रीराम सिंह धर्मशक्तू, जो बीएसएफ से कमांडेंट के पद पर रिटायर हुए थे। उन्होंने मिलम ग्राम में अपने रिटायरमेंट के बाद के जीवन को व्यतीत करने के लिए अभी से ही अपनी पैतृक भूमि पर निर्माण प्रारम्भ कर दिया है। उन्होने आगे बताया, “हमने सच में अपना घर कभी नहीं छोड़ा है। घर वापसी की हमारी परंपरा तो सदियों पुरानी हुई। तब व्यापार के लिए बाहर जाते थे और अब नौकरी के लिए बाहर जाते थे”।

2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य से 5.02 लाख लोग पिछले दशक में नौकरी हेतु प्रवास कर चुके हैं। इनमें से 6338 गांवों से प्रवास करने वाले 3.83 लाख लोग यदा कदा अपने गांव आते रहते हैं जबकि 1.18 लाख लोग स्थायी रूप से उत्तराखंड छोड़ चुके हैं।

रंग समुदाय का अपनी पैतृक भूमि के लिए ये निस्स्वार्थ प्रेम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दृष्टि से भी छुप नहीं पाया है। इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने अपने रेडियो प्रोग्राम मन की बात पर कहा, ‘हाल ही में मैंने उत्तराखंड के दार्चुला के बारे में सुना। इसके एक तरफ नेपाल है और दूसरी ओर काली गंगा नदी। मैंने रुचिपूर्वक इस बात को पढ़ा कि कैसे रंग समुदाय आधुनिक तकनीक का उपयोग अपनी संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। उनकी भाषा की कोई लिपि नहीं हैं। लोगों ने गीत, कथाएँ, कवितायें इत्यादि पोस्ट करना शुरू किया। इस तरह व्हाट्सएप एक क्लासरूम बन गया जहां सभी टीचर और विद्यार्थी थे। रंग्लो भाषा को संरक्षित करने हेतु कई प्रोग्राम भी आयोजित किए जा रहे हैं। रंग समुदाय की यह नीतियां समूचे विश्व के लिए आदर्श हैं”।

रंग समुदाय के लोग प्रधानमंत्री की प्रशंसा से भी काफी उत्साहित थे और उन्होंने बताया कि उनका समुदाय अगले माह एक साहित्य महोत्सव का आयोजन भी करेगा। उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सेक्रेटरी सीएस नपल्च्याल बताते हैं, “हम अगले वर्ष रंग ल्वू साहित्य महोत्सव का आयोजन करने जा रहे हैं। रंग समुदाय में ल्वू का अर्थ भाषा है, जिसे 20,000 लोग भारत में और नेपाल में 1000 लोग बोलते हैं। रंग कल्याण संस्था के सेक्रेटरी राम सिंह हयाङ्कि के अनुसार, “हमारे भाषा के संरक्षण पर प्रधानमंत्री की प्रशंसा के हम आभारी हैं”।

एक ओर जहां पैसा कमाने हेतु लोग अपने घर बार को हमेशा के लिए छोड़ने को तैयार हैं, तो वहीं लोग अपनी संस्कृति और सभ्यता को संरक्षित करने हेतु रंग समुदाय जो मेहनत कर रही है, वो ठंडी हवा के ताज़े झोंके के समान है।

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