भारत की कूटनीति में बड़ा बदलाव: तालिबान से अमेरिकी डील में भारत भी होगा शामिल

तालिबान

PC: Jagran

पिछले तीन महीनों में भारत ने अपनी विदेश नीति में जबरदस्त बदलाव किया है। एस जयशंकर के नेतृत्व में भारत ने अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के किसी भी मुद्दे में भागीदार बनना शुरू कर दिया है जो एक महाशक्ति बनने की पहली पहचान होती है। अब एक नए फैसले में भारत ने अमेरिका और तालिबान के बीच होने वाले शांति समझौते में शामिल होने का निर्णय लिया है। यह कोई आम बात नहीं है। भारत ने हमेशा से तालिबन जैसे आतंकी संगठन से किसी प्रकार की बातचीत का विरोध किया है। यह भारत की कूटनीति में बदलाव के संकेत हैं जहां भारत उपमहाद्वीप में होने वाले किसी भी घटना से दूर नहीं रहना चाहता है। अपनी मौजूदगी से भारत यह तय करने की कोशिश कर सकता है कि अफगानिस्तान में जनतंत्र बना रहे और शांति स्थापित हो क्योंकि भारत ने अफगानिस्तान में कई विकास परियोजनाएं चला रहा है।

दरअसल, अफगानिस्तान में करीब दो दशकों से जारी हिंसा को रोकने के लिए शनिवार को अमेरिका और तालिबान के बीच खाड़ी देश कतर की राजधानी दोहा में शांति समझौते पर दस्तखत होंगे। कतर ने समझौता समारोह में भारत को भी आमंत्रित किया है और अब दोहा में मौजूद भारतीय राजदूत पी कुमारन शिरकत करेंगे। यह पहला मौका होगा जब भारत तालिबान के साथ शांति समझौते में शिरकत करेगा। माना जा रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हालिया भारत दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हुई वार्ता के बाद यह नीतिगत बदलाव आया है। वैसे मॉस्को में 2018 में तालिबान की मौजूदगी में वाली वार्ता में भारत ने अनौपचारिक रूप से शिरकत किया था। इस समझौते से 2001 से अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिका के 14 हजार सैनिकों की वापसी का रास्ता साफ होगा।

बता दें कि भारत ने 1996 से 2001 के दौरान पाकिस्तान के संरक्षण में फले-फूले तालिबान की सरकार को कभी भी कूटनीतिक और आधिकारिक मान्यता नहीं दी थी। भारत का हमेशा मानना रहा कि तालिबान को मुख्यधारा में लाने का परिणाम क्षेत्र में पाकिस्तान को खुली छूट देने जैसा होगा। हालांकि, 2018 में भारत मास्को में हुए तालिबान के साथ बातचीत में शामिल हुआ था। उस दौरान भारत का प्रतिनिधित्व पाकिस्तान में पूर्व राजदूत रहे टीसीए राघवन और अफगानिस्तान के पूर्व राजदूत अमर सिन्हा ने किया था।

यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम में शिरकत करने आए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा भी था भारत-अमेरिका के बीच हुई विभिन्न मसलों पर बातचीत का एक अहम मुद्दा तालिबान शांति समझौता भी था। उस दौरान  अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक, स्थायी शांति की स्थिति को ध्यान में रखते हुए भारत और अमेरिका ने चर्चा की थी। दोनों देशों ने अफगानिस्तान के नेतृत्व वाली सरकार को अपने यहां शांति स्थापित करने में हरसंभव मदद का आश्वासन दिया। ट्रंप ने अफगानिस्तान के विकास को लेकर भारत के प्रयासों की जमकर सराहना की थी।

तालिबान-अमेरिका शांति वार्ता को पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा माना जा रहा है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही पाकिस्तान तालिबान की मदद से कश्मीर में आतंकी घटनाओं को बढ़ा सकता है ऐसे में इस वार्ते में भारत की उपस्थिति महत्वपूर्ण हो जाती है। साथ ही, यहां भारत के कारोबारी हितों के सवाल भी है। भारत किसी भी ऐसे मौके को नहीं छोड़ना चाहता है जहां से वह स्थिति को काबू में कर सके। शांति समझौते के दौरान तालिबान को किसी भी छूट का विरोध भारत करना चाहेगा जिससे भारत का किसी भी प्रकार से नुकसान न हो। नए यूएस-तालिबान समझौते के साथ, भारत ने उपमहाद्वीप में अपनी स्थिति को पुन: स्थापित किया है और तालिबान के साथ किसी तरह बातचीत की दिशा में पहला कदम उठाया है। वैसे भी ट्रम्प की यात्रा के दौरान जारी किए गए संयुक्त बयान में भारत ने अफगानिस्तान पर अपनी चिंताओं को अच्छी तरह से दर्शाया था। भारत को तालिबन द्वारा किए गए IC-184 का अपहरण अच्छे से याद होगा जिसके कारण भारत को मसूद अजहर को छोड़ना पड़ा था जिसके बाद उसने जैश-ए-मोहम्मद की स्थापना कर भारत के संसद पर हमला और पुलवामा जैसे हमले का जख्म दिया था।

इसी वजह से पिछले दो वर्षों से तालिबान के साथ होने वाले किसी भी बातचीत पर भारत ने कड़ी नजर रखी है। भारत अफगानिस्तान में अन्य सक्रिय ताकतों रूस, ईरान, सऊदी अरब और चीन के साथ नियमित तौर पर बातचीत में शामिल रहा है। हालांकि, भारत ने हमेशा से अफगान सरकार के नेतृत्व में और अफगान नियंत्रित शांति प्रक्रिया का समर्थन किया है और इसमें पाकिस्तान की भूमिका को खारिज किया है। अब इस समझौते में शामिल हो कर भारत पाकिस्तान की भूमिका को पूरी तरह से नगण्य बनाने की कोशिश करेगा। भारत ने हमेशा Afghan-led, Afghan-owned और Afghan-controlled बात की है। अब भारत ने तालिबान के साथ इस समझौते में शामिल हो कर काबुल पर पाकिस्तान के प्रभाव को कम करने के लिए एक बेहतरीन कदम उठाया है।

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