क्या सिसोदिया की नजर अरविंद केजरीवाल की कुर्सी पर है?

सिसोदिया

(PC: The Financial Express)

चुनाव, बहुमत और फिर सत्ता!! लोकतंत्र में सभी चुनावों के बाद यही कहानी देखने को मिलती है। परंतु इससे बाद भी एक प्रक्रिया होती है और वह प्रक्रिया है सत्ता में मुख्य पद पर बैठने की होड़। एक पार्टी में ही मुख्यमंत्री पद या प्रधानमंत्री पद के कई उम्मीदवार होते हैं। किसी को मौका मिलता है तो किसी को मन मशोस कर रहना पड़ता है। दिल्ली में भी यही देखने को मिल रहा है। आम आदमी पार्टी में ऐसे ही दो व्यक्ति हैं- मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल। सामने से तो इस बार के चुनाव में सब कुछ अच्छा दिख रहा है लेकिन अगर जरा सा गौर करें तो इन दोनों के बीच कुछ ठीक नहीं दिखाई दे रहा है। व्यक्ति कोई भी हो पर आकांक्षाएँ तो होती ही हैं वह भी जब बात मुख्यमंत्री पद की हो तो यह आकांक्षा बढ़ जाती है।

मीडिया ने इस चुनाव को CAA के खिलाफ वोट की तरह पेश किया है लेकिन एक बात पर किसी भी मीडिया हाउस ने ध्यान नहीं दिया है और इस चुनाव के दौरान मनीष सिसोदिया का उदय। इस चुनाव में मनीष सिसोदिया को मीडिया ने उतना कवरेज नहीं दी जितना केजरीवाल को मिला।

यह सभी को पता है कि आम आदमी पार्टी (आप) का चेहरा हमेशा से केजरीवाल रहे हैं। वे इस पार्टी के बनने के बाद से ही इस पार्टी के सुप्रीमो बने हुए हैं। हालांकि, केजरीवाल ने कभी भी AAP के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार में उस तरह की प्रमुख भूमिका नहीं निभाई। अपनी सरकार के कार्यकाल के अधिकतर के लिए, वह बिना पोर्टफोलियो के मुख्यमंत्री रहे, जो उनके सुप्रीमो होना नहीं दर्शाता है।

ठीक इसी दौरान उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया सरकार ने अधिकतर समय प्रमुख पोर्टफोलियो को संभाला और यहाँ तक कि जमीनी स्तर पर भी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर अपनी पकड़ बनाए रखी। उन्होंने कई विभागों जैसे वित्त, योजना, पर्यटन, भूमि और भवन, महिला एवं बाल, कला, संस्कृति और भाषाएँ और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा मंत्रालय को अपने पास रखा है।

इस चुनाव में AAP का चुनाव अभियान अधिकतर विश्व स्तरीय स्कूली शिक्षा प्रणाली का दावा करने के आसपास केंद्रित था जिसका श्रेय सिसोदिया को ही शिक्षा मंत्री के रूप में जाता है।

एक तरफ जहां सिसोदिया ने अपनी छवि को जनता के सामने एक काम करने वाले मंत्री के रूप में पेश किया तो वहीं केजरीवाल की छवि को इन पाँच वर्षों में काफी नुकसान हुआ है। वास्तव में देखा जाए तो वह कुछ भी हासिल नहीं कर सके। उन्होंने बस लोक-लुभावन घोषणाएँ की चाहे वो महिलाओं के लिए मुफ्त डीटीसी बस की सवारी हो या ऑड-ईवन की योजना। ये दोनों ही योजना दिल्ली वालों ने नहीं पसंद किया।

सिसोदिया ने नंबर दो रहते हुए भी अपना कद केजरीवाल से ऊपर बनाए रखा और वे केजरीवाल की छाया से दूर रहे। AAP के लिए वे शासन मॉडल का चेहरा बनकर उभरे हैं, जिसे आज यह पार्टी प्रचारित कर चुनाव जीतने की कोशिश कर रही है। सिसोदिया के शांत व्यक्तित्व की तुलना में, केजरीवाल एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उभरे जिन्होंने पीएम मोदी के बारे में भद्दी टिप्पणी करते हुए, ईवीएम में छेड़छाड़ और पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगा। इससे उनकी छवि नकारात्मक होती गयी।

अगर आम आदमी पार्टी के उदय को देखा जाए तो सिसोदिया केजरीवाल के सबसे करीबी रहे हैं। इस पार्टी के उत्थान के बाद प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और कुमार विश्वास जैसे कई नेता हुए हैं लेकिन आज इस पार्टी में कोई भी नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि सिसोदिया ने केजरीवाल को सभी से दूर रखा ताकि वह नंबर दो बने रहे। AAP की पूर्व नेता शाजिया इल्मी ने भी सिसोदिया पर यही आरोप लगाए थे।

केजरीवाल ने हमेशा से ही सिसोदिया पर भरोसा किया है लेकिन इस भरोसे के बदले वे अपने ही पार्टी के काडर और बड़े नेता से दूर हो चुके हैं। हालांकि केजरीवाल ने अपने और सिसोदिया के बीच किसी भी अनबन को नकारते रहे हैं लेकिन इन दोनों के हालिया बयानों से इनके बीच मतभेद को आसानी से समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शन पर भी इन दोनों के बयानों को देख लीजिये। सभी पार्टियों ने शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शन से अपने राजनीतिक हित साधने की कोशिश की है। इसी क्रम में सिसोदिया ने वोट बैंक की खातिर इस प्रदर्शन के समर्थन में खड़े होने की बात कही थी। परंतु केजरीवाल ने यह कह दिया था कि अगर पुलिस उनके हाथ में होती तो वे 2 घंटे में इस प्रदर्शन को हटवा देते।

यहीं से समझ लेना चाहिए कि किस तरह सिसोदिया वोट बैंक की राजनीति कर केजरीवाल को एक विशेष वर्ग से दूर रखकर खुद फ्रंट फुट पर राजनीति करना चाहते हैं। आखिर कौन मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहता। AAP भाजपा की तरह कैडर-आधारित पार्टी नहीं है। यह एक सुप्रीमो आधारित पार्टी है, और इसलिए सुप्रीमो केजरीवाल का शब्द अंतिम शब्द माना जाता है। परंतु यहा पर तो सिसोदिया केजरीवाल से आगे निकलते दिखाई दे रहे हैं। इस बार सिसोदिया अपने सुप्रीमो की बार न मानकर अपनी चलाने की कोशिश करते दिख रहे हैं।

आखिरकार राजनीति में कोई भी नंबर दो नहीं रहना चाहता और सभी को और अधिक ताकत की आकांक्षा होती है। और जब मौका मिल रहा है तो सिसोदिया केजरीवाल की छाया क्यों बनना चाहेंगे? अगर मौका दिया जाता तो सिसोदिया भारत की राष्ट्रीय राजधानी के मुख्यमंत्री अवश्य बनना चाहते होंगे। अब वे इस बात को सार्वजनिक तौर पर भले ही न स्वीकार करें।

उम्र के लिहाज से देखा जाए तो 51 साल की उम्र में केजरीवाल सिसोदिया से केवल तीन साल बड़े हैं। ऐसे में अगर वह नंबर दो ही रह गए तो फिर हमेशा के लिए उन्हें नंबर दो ही रहना पड़ेगा। अब गंभीर सवाल यह है कि सिसोदिया कब केजरीवाल को हटा कर नंबर एक बनते हैं।

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