खतना की सबरीमाला मामले से तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन हाँ, FGM को खत्म करना बहुत जरुरी है

सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने सोमवार को विभिन्न धर्मों में और केरल के सबरीमला मंदिर सहित विभिन्न धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव पर सुनवाई की। इस दौरान कोर्ट में वरिष्ठ वकीलों ने कहा कि वह सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश के मामले में दूसरे मामलों को नहीं जोड़ सकती। वरिष्ठ वकीलों के इस तर्क पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, पूर्व अटॉर्नी जनरल के पाराशरण और पूर्व सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने विरोध जाहिर किया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट आस्था और मौलिक अधिकारों से जुड़े इस बड़े मुद्दे का फैसला कर सकती है। बता दें कि केरल के सबरीमाला मंदिर मामले में 13 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 3:2 के फैसले के साथ इस मामले को 7 जजों की बड़ी संवैधानिक पीठ को सौंप दिया था। अब 9 जजों की बेंच ने कहा है कि दोनों पक्षों के वकीलों में बहस के मुद्दे को लेकर मतभेद हैं। सभी वकीलों ने हमें सुझाव दिया कि हम मुद्दे तय करें और हम यह करेंगे। अब कोर्ट 6 फरवरी को समयसीमा और मुद्दे तय करेगी। परन्तु यहाँ एक गंभीर सवाल उठता है कि क्या सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश का मामला दूसरे मामलों से जोड़ा जा सकता है? मेरा जवाब होगा नहीं।

13 जनवरी को चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि महिलाओं के धार्मिक स्थलों में प्रवेश पर लगा प्रतिबंध केवल सबरीमाला तक सीमित नहीं है, यह दूसरे धर्मों में भी प्रचलित है। अब बड़ी पीठ सबरीमाला, मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश, गैर पारसी से शादी करने पर पारसी महिलाओं पर लगने वाली पाबंदियां, महिलाओं में खतना जैसे धार्मिक मुद्दों पर फैसला लेगी। चीफ जस्टिस का कथन पूर्ण रूप से सही है। ये मामला केवल सबरीमाला तक सीमित नहीं है बल्कि कुछ ऐसे मामले हैं जो न केवल महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं बल्कि कुछ रूढ़िवादी प्रथाओं की वजह से उन्हें शारीरिक रूप से भी प्रताड़ना झेलनी पड़ती है।

वास्तव में सबरीमाला और दाऊदी बोहरा समाज में बच्चियों का खतना दोनों में ही जमीन आसमान का अंतर है। ये दोनों ही मामले मौलिक रूप से एक दूसरे से काफी भिन्न है। जहाँ सबरीमाला भक्तों की आस्था विश्वास से जुड़ी वर्षों से चली आ रही एक परंपरा है जिसमें भगवान अयप्पा की भक्ति भावना से पूजा की जाती है तो वहीं मुस्लिम बच्चियों का खतना करना एक रूढ़िवादी कुप्रथा है जिसका शिकार हर साल हज़ारों बच्चियां होती हैं। खतना या सुन्नत यहूदियों और मुसलमानों में एक धार्मिक संस्कार माना जाता जिसे घृणित मानवाधिकार उल्लंघन का एक बड़ा उदाहरण कहा जा सकता है। यह एक तरह से अपराध की श्रेणी में आता है। जहाँ सबरीमाला में प्रवेश करने पर किसी प्रकार की सजा का प्रावधान नहीं है तो वहीं खतना जो महिलाएं नहीं करवाती हैं उनके लिए सजा का प्रावधान होता है।

खतना में ऐसी भीषण पीड़ाएं उन लड़कियों को झेलनी पड़ती है जिनके नसीब में ऐसे परिवार में जन्म लेना लिखा होता जहाँ का समाज एक रूढ़िवादी प्रथा और संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता से घिरा होता है। खतना मुसलमानों में एक धार्मिक संस्कार होता है। दुनिया के कई देशों में महिलाओं को ही नहीं बल्कि कहीं कहीं तो पुरुषों को भी खतना की इस भयावह प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है। भारत में बोहरा मुस्लिम समुदाय (दाऊदी बोहरा और सुलेमानी बोहरा) में ये कुप्रथा प्रचलित है। बोहरा समुदाय में लड़कियों की बेहद छोटी उम्र जैसे 6- 8 साल के बीच में ही खतना करा दिया जाता है।

फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम) यानि कि महिला जननांग विकृति का अर्थ उन सभी प्रक्रियाओं से है जिनमें महिला जननांग (गुप्तांग) के बाहरी भाग को आंशिक अथवा पूर्ण रूप से हटा दिया जाता है अथवा किसी गैर चिकित्सकीय कारण से महिला यौन अंगों को होने वाली क्षति को कहा जाता है।” संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार “एफ़जीएम की प्रक्रिया में लड़की के जननांग के बाहरी हिस्से (क्लाइटॉरिस) को आंशिक या पूरी तरह काट दिया जाता है।” ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य केवल महिलाओं की कामेच्छा नियंत्रित करना होता है ताकि लड़की युवा होने पर शादी से पहले यौन संबंध न बना सके।

खतना की प्रक्रिया को चोरी-छिपे किया जाता है और इसके बारे केवल वही जानते हैं जो इस प्रक्रिया को अंजाम देते हैं और वो जो इसका शिकार होती हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस प्रक्रिया में केवल मूत्रत्याग और पीरियड्स के लिए छोटा सा रास्ता छोड़ दिया जाता है लेकिन इस खतना से पीड़ित महिलाओं को संभोग व बच्चे पैदा करने में भारी तकलीफ का सामना करना पड़ता है। यही नहीं खतना के कारण कुछ मासूम बच्चियां कई महीने तक दर्द से छटपटाती रहती हैं, कुछ के तो जननांगों में संक्रमण होने से मौत तक हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्तमान में लगभग 20 करोड़ महिलाएं और लड़कियां इस हानिकारक कुप्रथा की शिकार हैं। इसके अतिरिक्त हर वर्ष लगभग 40 लाख लड़कियों के शिकार होने का खतरा बना रहता है।

इस भयावह प्रक्रिया को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकारों का उल्लंघन मानता है और वर्ष 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसे दुनिया से खत्म करने के लिए एक संकल्प भी लिया था। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने 6 फरवरी को महिलाओं के खतना या सुन्नत के खिलाफ जीरो टॉलरेंस का अंतरराष्ट्रीय दिवस घोषित किया था। आप समझ सकते हैं कि कैसे मासूम बच्चियों तक को खतना के नाम पर शारीरिक रूप से प्रताड़ना झेलनी पड़ती है ऐसे में ये मामला सबरीमाला मामले से कैसे तुलनात्मक है ?

जहाँ सबरीमाला मामला लोगों की आस्था, विश्वास और श्रद्धा से जुड़ा है तो वहीं महिलाओं के खतना का मामला एक रुढ़िवादी प्रथा है जहाँ महिलाएं इस प्रथा से पीड़ित हैं। ऐसे में जब इन सभी प्रथाओं को सुप्रीम कोर्ट देख रहा है, तो यह अय्यप्पा भक्तों की विनम्र प्रार्थना है कि सबरीमाला मंदिर से जुड़ी प्रथाओं और उससे जुड़ी श्रद्धा पर भी गौर करें क्योंकि ये महिलाओं के अधिकारों का हनन नहीं करता और न ही उन्हें प्रताड़ित करता है।

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