2014 में जब से मोदी सरकार ने सत्ता संभाली है, तब से भारतीय राजनीति में व्यापक बदलाव हुआ है। जिन मुद्दों को निरर्थक समझा जाता था, उन पर ध्यान दिया जाने लगा। जो राज्य पूर्ववर्ती सरकार की दृष्टि में महत्वहीन थे, उन्हें भी मोदी सरकार द्वारा महत्व दिया जाने लगा, जिसमें प्रमुख रूप से पूर्वोत्तर के राज्य शामिल हुए। आज, मोदी सरकार के सत्ता में के लगभग छह वर्ष बाद, हम इस बात को दावे के साथ कह सकते हैं कि पूर्वोत्तर और उसके नेता भी अब मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं।
पूर्वोत्तर तो शुरू से भारत का एक अभिन्न अंग रहा है, परंतु 2014 तक उसके साथ अधिकांश सरकारें [वाजपेयी सरकार को छोड़कर] सौतेला व्यवहार करती थी। हमारे बड़े से बड़े राजनीतिक विशेषज्ञ पूर्वोत्तर के किसी नेता का नाम सुनकर बगलें झाँकते थे। अगर कोई हादसा या बम विस्फोट न हो, तो हमारे देश के कई लोगों को इस बात का आभास भी नहीं होता था कि पूर्वोत्तर के राज्य भी भारत के ही अंग हैं। स्थिति तो ऐसी थी कि हमारे देश के बच्चों को यह भी नहीं याद होता था कि पूर्वोत्तर में कितने राज्य हैं।
परंतु मोदी सरकार के आते ही मानो पूर्वोत्तर की दशा और दिशा, दोनों ही बदल गए। सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने खेल एवं युवा मंत्रालय का पदभार असम के लखीमपुर से सांसद सरबानन्द सोनोवाल को सौंपा। नरेंद्र मोदी और उनके दाएं हाथ माने जाने वाले तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को नीचा दिखाने के लिए लुटियंस मीडिया ने काफी प्रयास किए। परंतु इस चक्कर में वे अनायास ही पूर्वोत्तर पर भी प्रकाश डालने लगे।
2016 में पूर्वोत्तर में मानो कायाकल्प हो गया। उस समय भाजपा की हालत बहुत ज़्यादा अच्छी नहीं थी। दिल्ली और बिहार में लगातार हारने के बाद भाजपा के भविष्य पर प्रश्न उठाए जाने लगे थे। इसी बीच आया असम का चुनाव, जिसमें एक ओर थे कांग्रेस के तरुण गोगोई, तो वहीं दूसरी ओर थी भारतीय जनता पार्टी के सरबानन्द सोनोवाल। परंतु जिस एक चीज़ पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वह था भाजपा में हिमन्ता बिसवा सरमा की दमदार एंट्री।
कभी तरुण गोगोई के दायें हाथ माने जाने वाले हिमन्ता को कांग्रेस के भेदभाव से परिपूर्ण व्यवहार के कारण पार्टी छोड़ने पर विवश होना पड़ा। ये तरुण गोगोई जैसे व्यक्ति के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ, और 15 वर्ष का कांग्रेस शासन एक झटके में बिखर आया। हिमन्ता बिसवा सरमा ने पूर्वोत्तर को मुख्यधारा में जोड़ने का काम शुरू किया।
इसके बाद तो मीडिया को न चाहते हुए भी पूर्वोत्तर पर अपना ध्यान केन्द्रित करना पड़ा। 2016 में ही पेमा खांडु समेत 43 विधायक भाजपा से जुड़ गए। फिर क्या मणिपुर, क्या मेघालय, सभी भाजपा या भाजपा समर्थित एनडीए में आने लगे।
परंतु पूर्वोत्तर को पूर्णतया मुख्यधारा में लाने वाला वर्ष था 2018। इस वर्ष चार पूर्वोत्तर के राज्यों का चुनाव होना था, जिनमें सबसे प्रमुख था त्रिपुरा। वहां पर दो दशक से कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माणिक सरकार का शासन था, जिनकी मीडिया ने बड़ी साफ सुथरी छवि पेश की थी। परंतु मीडिया के सारे प्रपंच फेल हुए, और सभी को चौंकाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने पहली बार त्रिपुरा में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई। इसके अलावा मीडिया के अहम इवेंट्स से लेकर 2020 के फिल्मफेयर पुरस्कार आयोजित करने तक के लिए पूर्वोत्तर ने अनेक अवसर प्रदान किए हैं।
परंतु मेन्स्ट्रीम मीडिया का ध्यान पूर्वोत्तर पर इसलिए नहीं केन्द्रित हुआ क्योंकि वे पूर्वोत्तर को भी भारत का भाग मानते हैं। आज भी उसका प्रमुख उद्देश्य भाजपा को नीचा दिखाना और किसी भी तरह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को सत्ता से बाहर देखने की है। इसके लिए आवश्यकता पड़ने पर वे पूर्वोत्तर के भाजपा नेता, विशेषकर बिप्लब कुमार देब और हिमन्ता बिसवा सरमा का उपहास उड़ाने से भी नहीं थकते। जिस तरह से सीएए के विरोध के नाम पर मीडिया ने हिंसक प्रदर्शनों को दंगों में भड़काने में एक अहम रोल निभाया था, वो किसी से नहीं छुपा है।
परंतु भाजपा पूर्वोत्तर के नेता भी मीडिया को हल्के में नहीं लेते। हिमन्ता बिसवा सरमा ने जहां पूरे पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त करने में एक अहम भूमिका निभाई है, तो वहीं बिप्लब कुमार देब जैसे मुख्यमंत्री शासन और वक्तव्य दोनों में ही बराबर की निपुणता रखते हैं। कभी अपने बयानों के अनावश्यक विवाद का सामना करने वाले बिप्लब अब सोशल मीडिया पर वामपंथियों के छक्के छुड़ाते हुए दिख रहे हैं।