रघुबर दास सिंड्रोम: जो मुख्यमंत्री दिखाई नहीं देते, वो जीत नहीं सकते

रघुबर दास सिंड्रोम

भारत के 28 राज्यों में से 11 राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री और 6 राज्यों में पार्टी के गठबंधन सहयोगियों की सरकारें उपस्थित हैं। पर 11 राज्यों में कुछ ऐसे भी हैं, जो रघुबर दास सिंड्रोम से सफर करते हैं। इस बीमारी के अंतर्गत उस राज्य के  मुख्यमंत्री राज्य में अपने शासन से लोगों के जीवन में बदलाव तो लाते हैं, परंतु उसका बिलकुल भी प्रचार नहीं करते हैं। झारखंड हारने के पीछे का मुख्य कारण यही था। यदि रघुबर दास की सरकार कोई काम करती थी, तो उसका प्रचार प्रसार कम ही करती थी।

परंतु रघुबर दास अपने तरह के इकलौते प्राणी नहीं है, ऐसे कुछ और सीएम भी हैं, जो इसी सिंड्रोम से सफर करते हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड सीएम के त्रिवेन्द्र सिंह रावत इसी बीमारी से ग्रस्त लगते हैं। उनकी सरकार को काफी नकारात्मक तरह से देखा जाता है, और उनकी सरकार मंदिरों के अधिग्रहण के लिए भी विवादों के घेरे में रही है। यदि अभी विधानसभा चुनाव हुए, तो रघुबर दास की भांति वे भी अपनी कुर्सी गंवा सकते हैं।

इसी भांति हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी ‘रघुबर दास सिंड्रोम’ से ग्रस्त दिखाई देते हैं।   परंतु त्रिवेन्द्र सिंह रावत की भांति वे अक्खड़ नहीं है। परंतु वे अपने काम का प्रचार प्रसार करते नहीं दिखाई देते हैं। उनके नेतृत्व में हिमाचल प्रदेश देश का पहला राज्य है, जहां एलपीजी कवरेज शत प्रतिशत हो चुका है। परंतु उनका पीआर बिलकुल भी आक्रामक नहीं है, जिसके कारण एक दो मीडिया हाउस छोड़कर किसी ने भी । यदि वे समय रहते नहीं चेते, तो उनका हाल भी रघुबर दास जैसा हो सकता है।

परंतु ऐसी स्थिति हर राज्य की नहीं है। 2016 से पेमा खांडू अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। 2019 के विधानसभा चुनावों में वे फिर एक बार जनता द्वारा चुन कर आए हैं। अपनी कई नीतियों और भारत समर्थक व्यवहार के कारण पेमा सुर्खियों में बने रहते हैं, और जनता के बीच बेहद लोकप्रिय होने के कारण पेमा को फिलहाल कोई खतरा नहीं है। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश में भाजपा ने अकेले 41 सीट और एनडीए ने कुल 60 में से 53 सीट जीती। इसलिए अगले 5 वर्ष और शायद 2029 तक पेमा ही अरुणाचल की कमान संभालेंगे।

अब पूर्वोत्तर की बात की है, और असम की बात न हो, ऐसा हो सकता है क्या। 2016 में पहली बार भाजपा सत्ता में आई थी, और सर्बानन्द सोनोवाल को मुख्यमंत्री बनाया गया था। परंतु मीडिया में असम की कवरेज होने के बाद भी सर्बानंद सोनोवाल को कोई नहीं पूछता।  सीएए के विरोध के कारण असम को भी कुछ हफ्तों तक हिंसा का सामना करना पड़ा था। लेकिन असम ‘रघुबर दास सिंड्रोम’ की चपेट में इसलिए भी नहीं आता, क्योंकि हिमन्ता बिसवा सरमा जैसा ब्रह्मास्त्र भाजपा के पास मौजूद है। जब तक वे असम में उपस्थित है, 2021 में भाजपा की विजय तय है।

यूं तो हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी अपने काम का खासा प्रचार नहीं करते हैं, परंतु दिल्ली के निकट होने के कारण उन्हे अच्छी ख़ासी सुविधाएं प्राप्त हैं, और इसी कारण जनाब सुर्खियों में आ जाते है। ये भी एक कारण है कि स्थिति भाजपा के प्रतिकूल होते हुए भी पार्टी 40 सीटें प्राप्त करने में सफल रही, और पार्टी ने दुष्यंत चौटाला के साथ मिलकर सरकार बना ली।

गोवा और गुजरात में, जिन राज्यों में भाजपा ने इतने लंबे समय तक शासन किया है, वे स्वाभाविक रूप से सुरक्षित हैं क्योंकि प्रमोद सावंत और विजय रूपाणी को व्यापक मीडिया कवरेज  मिलती है और यहाँ विपक्ष न के बराबर है। ऐसे मेंयहाँ के मुख्यमंत्रियों को डरने की आवश्यकता नहीं है और न ही रघुबर दास सिंड्रोम इनकी साख को प्रभावित करेगा।  इसी भांति कर्नाटक, मणिपुर, त्रिपुरा, इत्यादि में मजबूत और मीडिया फ्रेंडली मुख्यमंत्री होने के कारण भाजपा को कोई विशेष दिक्कत नहीं है।

हालांकि, अपने काम का जिसने सबसे ज़्यादा प्रचार किया है, और जिसके दोबारा मुख्यमंत्री बनने में कोई संदेह नहीं है, वो है मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। चाहे कानून व्यवस्था में व्यापक सुधार लाना हो, शिक्षा तंत्र को दुरुस्त करना हो, संस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए आगे बढ़कर हाथ बढ़ाना हो, या फिर उपद्रवियों पर कड़ी कार्रवाई ही क्यों न करनी हो, योगी ने न सिर्फ काम किया, अपितु अपने काम का बढ़िया प्रचार भी किया। योगी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो अपने साथ अन्य राज्यों में भी अहम माने जाते हैं तभी तो चुनाव प्रचार के लिए उन्हें महत्व दिया जाता है। ऐसे में अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी योगी आदित्यनाथ का अनुसरण करते हुए अपने काम का प्रचार करें, ताकि उन्हें काम करने के बाद भी रघुबर दास की भांति अपनी कुर्सी न गंवानी पड़े। वैसे भी, जो दिखता है, वही टिकता है।

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