आखिरकार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ को अपना पद छोड़ना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार फ्लोर टेस्ट कराने से पहले ही कमलनाथ ने अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप दिया, और इसी के साथ कांग्रेस का मध्य प्रदेश राज लगभग डेढ़ वर्ष के बाद समाप्त हुआ। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये सियासी ड्रामा पार्टी में वरिष्ठ नेताओं और युवा नेताओं के बीच हुई झड़प के कारण हुआ, जिसके कारण ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी तक छोड़नी पड़ी, और उन्हीं के साथ 22 अन्य विधायकों ने भी पार्टी छोड़ना उचित समझा। परन्तु पार्टी के मध्य प्रदेश इकाई में आयी दरार के साथ एक बार फिर उस व्यक्ति का राजनीतिक उदय हुआ है, जिसके करियर के बारे में अधिकतर लोगों को संदेह होने लग गया था। हम बात कर रहे हैं वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की, जिन्हें कमलनाथ के पतन ने एक बार फिर मध्य प्रदेश कांग्रेस में ऊंचाईयां छूने का एक अवसर प्रदान किया है।
राघोगढ़ रियासत के पूर्व महाराजा दिग्विजय सिंह 10 वर्षों तक कांग्रेस की ओर से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे, परन्तु उनके शासन में मध्य प्रदेश बीमारू राज्यों की श्रेणी में शामिल हो गया था, जिसके कारण कांग्रेस को 2003 में करारी हार झेलनी पड़ी थी।
पिछले 15 वर्षों में उन्हें वापसी दर्ज़ कराने का एक भी ठोस अवसर हाथ नहीं लगा। परन्तु दिग्विजय सिंह ने अपने राजनीतिक करियर को आंच नहीं आने दी। 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले ही ये स्पष्ट हो चुका था कि कांग्रेस तीन गुटों में बंट चुकी थी – एक, जो कमलनाथ को समर्थन थे, दूसरा, ज्योतिरादित्य सिंधिया और तीसरा, दिग्विजय सिंह का गुट। हालांकि, दिग्विजय सिंह ने स्पष्ट किया था कि वे सीएम पद की लालसा नहीं रखते और उन्होंने कमलनाथ को अपना स्पष्ट समर्थन दिया।
जैसे ही कांग्रेस के वरिष्ठ दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ के साथ मिलकर ज्योतिरादित्य सिंधिया को एक किनारे धकेलना शुरू कर दिया। जहां कमलनाथ सिंधिया वंश से खुन्नस खाते थे, तो वहीं दिग्गी राजा रियासत और सिंधिया परिवार के क्षेत्र ग्वालियर में सदियों से तनातनी रहती थी। दोनों ही अपने पुत्रों को कांग्रेस के भविष्य के तौर पर दिखाना चाहते थे और सिंधिया वंश को दरकिनार करना चाहते थे।
यूं तो लग रहा था कि दिग्विजय और कमलनाथ के बीच दाँत काटी दोस्ती है। परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये बात फिट नहीं बैठती। पिछले ही वर्ष लोकसभा चुनावों के दौरान कमलनाथ ने आग्रह किया था कि दिग्विजय मध्य प्रदेश के सबसे कठिन सीट यानी एमपी की राजधानी भोपाल से लड़ें। परन्तु दिग्विजय को क्या पता था कि उनके सामने भाजपा की ओर से कोई और नहीं, बल्कि वही साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर उतरेंगी, जिनको उदाहरण बनाकर दिग्विजय ने हिन्दू आतंकवाद के झूठे सिद्धांत को सिद्ध करने की कोशिश की थी। रही सही कसर चुनाव के परिणाम ने पूरी कर दी, जब दिग्विजय सिंह को 3 लाख 64 हजार 822 मतों से करारी हार का सामना करना पड़ा। लोगों को लगने लगा कि अब दिग्विजय सिंह के दिन तो लद गए, परन्तु दिग्विजय ने तब भी मोर्चा नहीं छोड़ा। अब चूंकि सिंधिया इक्वेशन से बाहर हो चुके हैं, और कमलनाथ अब पार्टी की नज़रों में गिर चुके हैं, इसलिए अब दिग्विजय के लिए वर्चस्व की लड़ाई में विजय का मार्ग खुल चुका है। एक ओर वे सिंधिया को निशाने पर ले सकते हैं, तो वहीं वे पार्टी में पड़ी फूट के दोष से भी बच सकते हैं। चूंकि दिग्विजय पार्टी में फोर फ्रंट पर नहीं थे, इसलिए वे जवाबदेही से भी साफ बच सकते हैं। ,
एक ओर कमलनाथ अब अपने राजनीतिक पतन की ओर अग्रसर है, तो वहीं दिग्विजय सिंह को एक बार फिर कांग्रेस में अपनी धाक जमाने का अवसर मिला है। अब देखना यह है कि दिग्गी राजा इस अवसर का कितना लाभ उठाते हैं।