सोशल मीडिया के जमाने में लिबरल मीडिया इतना एजेंडा फैला रही है, सोचिए 2002 में क्या हुआ होगा

लिबरल मीडिया के मुताबिक PM मोदी और BJP ने ही दिल्ली में मुसलमानों को मरवाया है

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पिछले दिनों दिल्ली में हुई हिंसा को आप किस तरह देखते हैं। हिंसा में मरने वाले लगभग दो तिहाई लोग मुस्लिम धर्म से हैं तो वहीं एक तिहाई लोगों का संबंध हिन्दू धर्म से है। इस तरह हिंसा में किसी व्यक्ति का मारा जाना किसी भी देश की कानून व्यवस्था पर सवाल जरूर उठाता है, फिर चाहे मरने वाले व्यक्ति किसी भी धर्म या जाति के क्यों ना हों, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि सिर्फ हमारे देश की ही नहीं, बल्कि दुनियाभर की मीडिया इसे हिन्दू-मुस्लिम दंगों का रूप दे रही है।

कोई इसे मुस्लिम विरोधी हिंसा बता रहा है, तो कोई हिंदुओं को आतंकी घोषित करने पर तुला हुआ है। एक तरफ जहां कानूनी व्यवस्था पर सवाल उठाए जाने चाहिए थे, वहां हिंदुओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। सोशल मीडिया के जमाने में जनता ऐसे एजेंडावादियों के विचारों का मुंहतोड़ जवाब तो दे रही है, लेकिन आज की स्थिति समझकर कोई वर्ष 2002 में हुए गुजरात दंगों पर मीडिया की तथाकथित निष्पक्ष रिपोर्टिंग की विश्वसनीयता का अंदाज़ा लगा ही सकता है।

पश्चिमी मीडिया में दिल्ली में हुई हिंसा को बेशक मुस्लिम विरोधी करार दिया गया है। वहां की मीडिया हिंसा में मारे गए मुस्लिम लोगों के परिवारों की संवेदनशील कहानियां लोगों को परोस रही है, और इसके साथ ही PM मोदी को निशाने पर लिया जा रहा है। पश्चिमी मीडिया ने इस तथ्य को मानो भुला ही दिया है कि मरने वाले एक तिहाई लोग हिन्दू धर्म से भी हैं। उदाहरण के तौर पर हाल ही में PM मोदी को divider-in-chief की संज्ञा देने वाले TIME की एक रिपोर्ट में शीर्षक दिया गया “सिर्फ हमारे खिलाफ ही हिंसा की जा रही है; दिल्ली हिंसा के बाद भारत के मुस्लिम अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं”।

इसी प्रकार द गार्डियन में एक लेख छपा जिसका शीर्षक था “दिल्ली में हुई हिंसा कोई दंगा नहीं था, यह एक सुनियोजित मुस्लिम विरोधी क्रूरता थी

इन दो रिपोर्ट्स को पढ़ने के बाद शायद ही कोई कह पाएगा कि दिल्ली हिंसा में कोई हिन्दू भी मारा गया होगा। अपने भ्रामक तथ्यों के आधार पर इन लेखों में फिर BJP की कथित हिन्दू अतिवादी और राष्ट्रवादी विचारधारा की आलोचना की जाती है और यह दिखाने की कोशिश की जाती है मानो इस सब हिंसा में BJP और PM मोदी का ही सीधे तौर पर हाथ हो।

इसे आप TIME में छपे लेख को पढ़ने के बाद आसानी से समझ सकते हैं। लेख में लिखा है “वैसे कुछ हिन्दू भी हिंसा में मारे गए थे, लेकिन जल्द ही यह सामने आ गया कि हिन्दू राष्ट्रवादी नारों के साथ इमारतों को जलाती और मुस्लिमों को पीटती हिंसक भीड़ पर PM नरेंद्र मोदी और हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी BJP का हाथ था”। अब इसे घोर एजेंडा नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे।

ऐसी भ्रामक रिपोर्टिंग देखकर आप इस बात का अंदाजा भली-भांति लगा सकते हैं कि इतिहास में हुई ऐसे ही हिंसाओं में कितनी ‘निष्पक्षता’ के साथ रिपोर्टिंग की गई होगी। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2002 में हुए गुजरात के दंगों को ही ले लीजिये। आज तक PM मोदी को उन दंगों में उनकी कथित भूमिका की वजह से मीडिया के एक धड़े द्वारा कटघरे में खड़ा किया जाता है। वर्ष 2012 में गुजरात हाईकोर्ट ने यह साफ कर दिया था कि गुजरात में वर्ष 2002 में हुई हिंसा में सुप्रीम कोर्ट को तत्कालीन CM मोदी की कोई भूमिका नहीं मिली है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भी मीडिया के एक विशेष वर्ग द्वारा चलाए जा रहे मोदी विरोधी एजेंडे पर लगाम नहीं लगा पाया। वर्ष 2016 में राणा अय्यूब द्वारा जारी एक किताब “गुजरात फाइल्स” में भर-भर के PM मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार किया गया। अपनी किताब में उन्होंने दावा किया कि कई अधिकारियों ने 2002 दंगों के समय राजनीतिक दबाव की बात मानी थी। एजेंडावादियों ने वर्ष 2015 में इस किताब का भरपूर प्रचार किया था और प्रशांत भूषण जैसे वकीलों ने तो इस किताब को सुप्रीम कोर्ट में सबूत के तौर पर पेश कर दिया था, लेकिन कोर्ट ने इस किताब को कोई भाव देने से मना कर दिया।

दरअसल, प्रशांत भूषण और शांति भूषण जैसे वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में राणा अय्यूब की किताब को आधार बनाकर गुजरात के पूर्व गृहमंत्री हरेन पाण्डया की मौत की जांच करने की याचिका दायर की थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने इस किताब को सबूत मानने से ही इंकार कर दिया था और इसे बेकार करार दिया था।

इससे यह साफ होता है कि कैसे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर दिया जाता है और सहूलियत के हिसाब से किसी भी व्यक्ति की छवि को खराब या विरूपित कर दिया जाता है। वर्ष 2002 में जिस एजेंडे के पीएम मोदी शिकार बने थे, आज वही एजेंडा उनके खिलाफ फिर से शुरू कर दिया गया है।

हालांकि, उस समय में और आज में फर्क बस इतना है कि आज इनके एजेंडे को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म मौजूद हैं परंतु आज से 20 साल पहले ऐसा कोई जरिया उपलब्ध नहीं था और जो कुछ भी ये अखबार और मीडिया Platforms परोसते थे, बस उसे ही पत्थर की लकीर मान लिया जाता था, जिसका आज भी PM मोदी शिकार होते रहते हैं।

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