महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे एक बार फिर विवादों के घेरे में हैं। इस बार अयोध्या के उनके प्रस्तावित दौरे के कारण उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। परंतु ये विरोध किसी विपक्षी पार्टी से नहीं, बल्कि अयोध्या के संतों की ओर से है। अयोध्या के संतों ने उद्धव ठाकरे के अल्पसंख्यक तुष्टीकरण वाली नीतियों से क्रोधित होकर उनके विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है। एक ओर जहां कुछ संतों ने उद्धव को अयोध्या न आने की हिदायत दी, तो वहीं महंत परमहंस दास ने कहा है कि यदि उद्धव ने अयोध्या आने की गलती की तो उन्हें अप्रत्याशित विरोध का सामना करना पड़ेगा।
बता दें कि उद्धव ठाकरे ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा राम जन्मभूमि के पक्ष में निर्णय आते ही अयोध्या दौरे का ऐलान किया था। परंतु कांग्रेस के साथ गठबंधन के पश्चात ये यात्रा स्थगित हो गयी थी। अब एक बार फिर उन्होंने अयोध्या यात्रा का ऐलान किया है, जिसके लिए उन्हें चारो तरफ से आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
महंत परमहंस दास के अनुसार, “शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना का गठन हिन्दू राष्ट्र के लिए किया था। लेकिन जिस दिन सत्ता के लिए कांग्रेस पार्टी से गठबंधन किया, उसी दिन बालासाहेब का सिद्धान्त खत्म हो गए। इसलिए अब उनको रामभक्त होने का दिखावा नहीं करना चाहिए और न ही अयोध्या आने की कोई आवश्यकता है। अब राजनीति करनी हो तो उन्हें मक्का मदीना का रुख करना चाहिए”।
इसके अलावा महंत परमहंस दास ने बताया, “हमने जिला प्रशासन से अनुरोध किया है कि उद्धव को अयोध्या आने की अनुमति न दी जाए, लेकिन यदि वे अयोध्या आते हैं तो उनका स्वागत काले झंडे से किया जाएगा। उद्धव ठाकरे ने शिवसेना के नाम पर लोगों को ठगा है, इसलिए अयोध्या में अब उनका कोई स्थान नहीं है”।
अब उद्धव ठाकरे ने जबसे महाराष्ट्र की सत्ता संभाली है, उनके राज्य में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को अप्रत्याशित बढ़ावा मिला है। एक ओर एनसीपी ने मुसलमानों को शैक्षणिक संस्थानों में 5 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव रखा है, तो वहीं कांग्रेस ने शिवसेना के आराध्य माने जाने वाले क्रांतिकारी और हिंदूवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तभी नीचता की सारी सीमाएं लांघते हुए कांग्रेस समर्थित सेवा दल ने ‘वीर सावरकर कितने वीर’ नामक एक पत्रिका बंटवाई, जिसमें लिखा था कि सावरकर के नाथूराम गोडसे के साथ समलैंगिक संबंध थे।
इतना ही नही, जनसत्ता की एक रिपोर्ट की मानें, तो तीनों पार्टियों द्वारा रचित कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अंतर्गत सरकार बनाने के लिए एक आवश्यक शर्त यह थी कि शिवसेना सावरकर को भारत रत्न देने की मांग से पीछे हट जाए, और शिवसेना ने इसे बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार भी कर लिया था। मतलब सत्ता में आने से पहले ही एनसीपी और कांग्रेस ने साफ कर दिया था कि उनके सरकार में वीर सावरकर के लिए कोई सम्मान नहीं होगा, और इसके बाद भी शिवसेना इस बेमेल गठबंधन में बनी हुई है।
शायद इसीलिए उद्धव ठाकरे अयोध्या के अपने प्रस्तावित दौरे पर शुरुआत में जाना नहीं चाहते थे। शिवसेना के एक नेता का कहना था कि ये यात्रा सुरक्षा कारणों से रद्द की गई। वहीं एक और शिवसेना के नेता ने कहा है कि सरकार बनाने को लेकर हमारी पार्टी, कांग्रेस और एनसीपी के साथ बैठक करने वाली है इसीलिए उन्होंने अपना दौरा रद्द कर दिया है। नेताओं के बयान कुछ भी हों लेकिन राजनीतिक गलियारों में इसकी वजह कुछ और ही बताई जा रही थी।
बता दें कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार के बीच दिल्ली में गठबंधन सरकार बनाने को लेकर बैठक होने वाली थी और उद्धव नहीं चाहते थे कि कांग्रेस और एनसीपी में इस दौरे को लेकर कोई गतिरोध पैदा हो। कांग्रेस पार्टी पहले से ही असमंजस की स्थिति में थी।
परंतु इस बार उद्धव की दाल न गली, क्योंकि उद्धव ठाकरे का पाखंड बहुत पहले ही उजागर हो चुका है। ऐसे में स्पष्ट होता है कि उद्धव के लिए रामलला तो बस सत्ता हथियाने का जरिया मात्र थे। कुर्सी के लिए शिवसेना कितना भी गिर सकती है ये आप अयोध्या दौरे से जोड़कर देख सकते हैं, और शायद इसलिए अयोध्या के संत नहीं चाहते कि वर्षों बाद श्री राम जन्मभूमि के निर्माण में किसी भी प्रकार की अड़चन पैदा हो।