न्यूज़रूम में हीरो पर सोशल मीडिया पर ज़ीरो – कैसे ट्विटर ने खोली लुटियंस पत्रकारों की पोल

रवीश कुमार और करण थापर पहले ही ट्विटर छोड़कर भाग चुके हैं

ट्विटर

पिछले एक दशक में किसी क्षेत्र में सबसे अधिक बदलाव आया है, तो वो है सोशल मीडिया के क्षेत्र में। ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और अब टिक टॉक का जिस प्रकार इनका प्रभाव बढ़ा है, उससे समय के साथ इन्फॉर्मेशन पर एक एलीट वर्ग के वर्चस्व खत्म हुआ है। ट्विटर ने जिस तरह से वामपंथी पत्रकारों, विशेषकर बरखा दत्त, सागरिका घोष की पोल खोली है, उससे स्पष्ट होता है कि कैसे सोशल मीडिया ने इन लिबरल पत्रकारों को कहीं का नहीं छोड़ा है।

ट्विटर ने राजनीतिक परिदृश्य का कायाकल्प करने में काफी सहायता की है, जिससे दुनिया में कम्युनिकेशन काफी Interactive हुआ है। परंतु एक दशक पहले तक सब कुछ इतना पारदर्शी नहीं था। बुद्धिजीवी, मीडिया कर्मचारी, लेखक, प्रोफेसर जैसे लोग अपने कूप मंडूक वाली प्रवृत्ति से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते थे और चूंकि उनकी जी हुज़ूरी करने वालों के अलावा कोई अन्य व्यक्ति होता नहीं था, इसलिए इन्फॉर्मेशन पर इनका कब्जा रहता था। ऐसे लोगों पर अंधा बांटे रेवड़ी, फिर अपनों को दे चरितार्थ होती है।

सोशल मीडिया युग से पहले एलीट वर्ग के लोग एक ही विचारधारा को बढ़ावा देते था, और अपने जैसे विचारों वाले व्यक्तियों की ही सराहना करते थे। परंतु ट्विटर के उदय ने मानो पासा ही पलट दिया। आज डोनाल्ड ट्रम्प या नरेंद्र मोदी जैसे वैश्विक लीडर पारंपरिक मीडिया की बजाए या तो प्रत्यक्ष रूप से जनता से संवाद करते हैं, या फिर वे ट्विटर जैसे प्लेटफार्म का सहारा लेते हैं।

इसके अलावा ट्विटर ने वामपंथी पत्रकारों के प्रोपगैंडा को ध्वस्त करने में एक अहम भूमिका भी निभाई है। किसी जमाने में जो बरखा दत्त कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को उचित ठहराकर भी साफ बच जाती थी, आज उसी बरखा दत्त को भागने का रस्ता नहीं मिल रहा है। इसी कारण कुछ पत्रकार, जैसे करण थापर और रवीश कुमार ने ट्विटर छोड़ दिया क्योंकि जनता के सवालों के प्रति जवाबदेही से लिबरलों का हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है।

उदाहरण के लिए कुछ दिन पहले बरखा दत्त, जो भारतीय पत्रकारिता में एक जाना माना नाम रहा है, आजकल सोशल मीडिया, खासकर ट्विटर पर उपहास का शिकार बनती हैं। कमलनाथ सरकार के अल्पमत में आने पर मोहतरमा ने ट्वीट किया था कि क्या कमलनाथ विधानसभा को भंग कर सकते हैं?

 

बरखा जी, 10वीं में सिविक्स की किताब ढंग से पढ़ ली होती, तो आज इतने बुरे दिन आपको न देखने पड़ते। विधानसभा भंग करने का अधिकार मुख्यत: राज्यपाल के पास होता है, या बहुमत वाली सरकार के पास। इसके पीछे सोशल मीडिया ने बरखा को काफी ट्रोल किया और उन्हें सिविक्स का पाठ भी पढ़ाया।

दूसरी ओर सागरिका घोष जैसी पत्रकार भी इस संसार में existकरती हैं, जिन्हें वास्तविकता से दूर दूर तक कोई मतलब नहीं। मोहतरमा ने केरल में व्याप्त partial lockdown पर ट्वीट किया, “केरल में कोरोना वायरस को लेकर lockdown है। यह पूरे देश में इकलौता राज्य है जहां लोगों के पास इतनी बुद्धि है कि वे कुछ ढंग का एक्शन लें, और बाकी राज्यों को कोई मतलब ही नहीं” –

शायद सागरिका को denial मोड में रहने की आदत पड़ चुकी है। केरल महाराष्ट्र के बाद वुहान वायरस से सर्वाधिक संक्रमित होने वाले राज्यों में शामिल है, जहां पर कुल 23 से ज़्यादा मामले सामने आये हैं। परंतु यह तो चंद उदाहरण हैं। इनके अधिकतर ट्वीट्स पर लाइक्स और रीट्वीट्स से ज़्यादा मुंहतोड़ जवाब ही मिले हैं।

वहीं दूसरी ओर सुब्रमण्यम स्वामी जैसे लोग भी हैं, जिन्हें वामपंथियों से भरे हुए पारंपरिक मीडिया ने एक समय पर लगभग अस्पृश्य बना दिया था। परंतु आज उन्हें ट्विटर पर न केवल 8.5 मिलियन लोग फॉलो करते हैं, अपितु उन्हें मेनस्ट्रीम मीडिया के इवेंट्स में भी निमंत्रण मिलता है। शायद यही कारण है कि जिस करण थापर और रवीश कुमार को वामपंथी लोग किसी आराध्य से कम नहीं समझते, जवाबदेही से बचने के लिए ट्विटर छोड़ चुके हैं।

https://twitter.com/ashwinnev/status/1239207635804516352?s=20

सच कहें तो सोशल मीडिया के कारण मीडिया द्वारा स्थापित कई ‘holy cows’, यानि वो व्यक्ति जिन पर कोई प्रश्न न कर सके, ध्वस्त हुए। कल तक जिस जवाहरलाल नेहरू और उनके वंश को भारत के लिए वरदान माना जाता था, आज उन्हें चंद लोगों को छोड़कर देश में किसी का भी समर्थन प्राप्त नहीं है। आज कई ऐतिहासिक फिगर्स, जैसे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, यहाँ तक कि नाथूराम गोडसे को भी एक अलग नज़रिये से देखा जा रहा है।

पारंपरिक मीडिया में जिस प्रकार की ‘censorship’ चलती थी, वो सोशल मीडिया पर उतनी मजबूत नहीं है। ‘Political Correctness’ के नाम पर जिस तरह से वामपंथ से इतर किसी भी विचार को दबा दिया जाता था, उसे सोशल मीडिया में अधिकतर स्थान नहीं मिलता। ऐसे में सोशल मीडिया के उदय से एक बात तो स्पष्ट है – अब पत्रकारिता या विचारों के आदान प्रदान पर प्रोपगैंडावादियों का प्रभुत्व नहीं चलेगा।

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