विश्व में कोरोना ने अपने अपने पाँव पसार लिए हैं और अब यह 100 से अधिक देशों तक पहुंच चुका है। चीन से शुरू हुई यह महामारी अब महाआपदा का स्वरूप ले चुकी है। चीन में जब इस वायरस ने महामारी के रूप में परिवर्तित हुआ तब चीनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग ने तुरंत इस बीमारी से मरने वालों का cremation या दाह संस्कार (शव को खुले स्थान में अग्नि की उपस्थिती में अन्त्येष्टि) करने का निर्देश दे दिया और burial या शव को दफनाने की प्रक्रिया पर रोक लगा दी थी जिससे यह वायरस और न फैले। जिस प्रक्रिया को चीन आज इस विपदा के आने पर अपना रहा है, उसे सनातन धर्म शताब्दियों नहीं बल्कि हजारों वर्षों से करता आया है।
विश्व की सबसे पुराने ग्रंथ ऋगवेद में भी दाह संस्कार के बारे में वर्णन है। ऋगवेद की कई ऋचाएँ हैं, जो बताते हैं कि भगवान अग्नि (भगवान की अग्नि) शव को शुद्ध करेंगे। यही नहीं महाभारत में अन्त्येष्टि कर्म का कई बार वर्णन आता है। गरुण पुराण में अंतिम संस्कार के बारे में विस्तार से बताया गया है। आदिपर्व में पाण्डु का दाह-कर्म; स्त्रीपर्व में द्रोण का दाह-कर्म; अनुशासनपर्व में भीष्म का दाह-कर्म; मौसलपर्व में वासुदेव का, स्त्रीपर्व में अन्य योद्धाओं का तथा आश्रमवासिकपर्व में कुन्ती, धृतराष्ट्र एवं गान्धारी का दाह-कर्म वर्णित है। यही नहीं रामायण में भी महाराज दशरथ की चिता चन्दन की लकड़ियों से बनी थी और उसमें अगुरु एवं अन्य सुगन्धित पदार्थ थे; सरल, पद्मक, देवदारु आदि की सुगन्धित लकड़ियाँ भी थीं; कौसल्या तथा अन्य स्त्रियाँ शवयात्रा में सम्मिलित हुई थीं।
अन्त्येष्टि एक संस्कार है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह या इससे भी अधिक संस्कारों में से एक है और मनु, याज्ञवल्क्यस्मृति एवं जातुकर्ण्य के मत से यह वैदिक मन्त्रों के साथ किया जाता है। भारत वर्ष में यह प्रक्रिया यूं ही नहीं आज भी चलता आ रहा है। इसके कई कारण हैं। आज विश्व दाह संस्कार को अपना रहा है, पश्चिम देशों में तो 20वीं शताब्दी में अपनाया और अब पूरब भी अपनाते जा रहा है।
भारतवर्ष का दाह संस्कार सिर्फ शव को अग्नि में जलाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि दाह संस्कार के बाद 14 दिन तक चलने वाली प्रत्येक प्रक्रिया का अपना महत्व है।
एक ओर गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि आत्मा अमर है, वह सिर्फ पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण करती है, आत्मा का ना आदि है और ना ही अंत। वहीं विज्ञान यह कहता है कि आत्मा एक ऊर्जा है जो रूपान्तरित होती रहती है। सनातन धर्म में अंतिम संस्कार मृत शरीर को अग्नि के सुपूर्द किया जाता है। इसे दाह संस्कार, अंत्येष्टि क्रिया शवदाह, दाग लगाना आदि भी कहा जाता है। जिस प्रक्रिया के तहत अंत्येष्टि की क्रिया संपन्न की जाती है उसे ही अंतिम संस्कार कहा जाता है।
यह एक प्रकार का यज्ञ होता है जिसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। संस्कार के रूप में इसकी मान्यता का एक कारण यह दिया जाता है कि इससे मृत शरीर नष्ट हो जाता है जिससे पर्यावरण की रक्षा होती है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह संस्कारों में आखिरी संस्कार माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य के लिये जन्म और मृत्यु का संस्कार ऋण स्वरूप माना गया है।
मृतक को गंगाजल से स्नान करवा कर उसकी अर्थी बनाई जाती है। परिजनों द्वारा कंधा देते हुए उसे शमशान तक ले जाया जाता है जहां शव को चिता पर रखकर उसे मुखाग्नि दी जाती है।
शास्त्रों के अनुसार मृत-शरीर या स्थूल-शरीर का दाह संस्कार 24 घंटे के अंदर-अंदर वेदों में वर्णित विधि और नियमों के अनुसार कर देना चाहिए। समय पर दाह संस्कार न करना या ज्यादा समय तक मृत शरीर को खुले वातावरण में रखने से वातावरण में कई प्रकार की सूक्ष्म और संक्रामक कीटाणु फैलने लगते हैं। यह सभी को पता है कि यह पूरा ब्रह्माण्ड पंचतत्व से बना है ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर का निर्माण भी पंचतत्वों से ही हुआ है। ये पांच तत्व :- पृथ्वी ( मिटटी ), जल ( वाष्प ), वायु ( हवा ), अग्नि ( आग ) और आकाश ( नभ ) है। यही कारण है कि मृत व्यक्ति का दाह संस्कार किया जाता जिससे वह अग्नि की मदद से वापस पंचतत्व में विलीन हो जाए।
यही नहीं, हो सकता है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है वह स्वयं किसी संक्रामक रोग से ग्रस्त हो, इस कारण शव को जालना ही सबसे उपयुक्त है क्योंकि जिस तापमान में शव को जलाया जाता है उस ताप में किसी भी किटाणु या विषाणु का बचना नामुमकिन हैं।
चिता की राख ठंडी होने के पश्चात मृतक की अस्थियां इकट्ठी की जाती हैं जिन्हें पवित्र तीर्थस्थल पर बहते जल में प्रवाहित किया जाता है। उत्तर भारत में गंगा नदी में अस्थियां प्रवाहित करने की परंपरा है। अस्थि विसर्जन भी विधि-विधान से योग्य ब्राह्मण द्वारा मृतक की आत्मा की शांति के लिये पूजा पाठ करवाकर किया जाता है।
शरीर के पूरी तरह से जल जाने के बाद ब्राह्मण द्वारा ‘कपाल क्रिया’ नामक संस्कार किया जाता है। इस रिवाज़ के अनुसार शव दाह के समय मृतक के सिर पर घी की आहुति दी जाती है तथा तीन बार डंडे से प्रहार कर खोपड़ी फोड़ी जाती है।
लेकिन एक बात और है जिसके अंतर्गत श्मशान में शव दाह के बाद घर आकर नहाना शामिल है। हिन्दू धर्म की अनेक मान्यताओं में यह भी एक मान्यता है कि शव दाह के पश्चात् शव यात्रा में सम्मिलित व्यक्ति के लिए स्नान करना आवश्यक हो जाता है। हमारी मान्यताएं निराधार नहीं हुआ करतीं। उनके पीछे एक तर्कसंगतता होती है।
मृत्यु के तुरंत बाद से ही मृत शरीर के अवयवों में विघटन की क्रिया प्रारंभ हो जाती है। शव के भीतर स्थित रूधिर, मांस, मल-मूत्र, कोशिकाएं आदि में बड़ी तेजी से सड़न की क्रिया चलने लगती है जिसके फलस्वरूप शवयात्रा में सम्मिलित सभी व्यक्ति प्रभावित होते हैं और बीमार भी पड़ सकते हैं। या फिर इसके अलावा यह भी हो सकता है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है वह स्वयं किसी संक्रामक रोग से ग्रस्त हो, तो ऐसे में उसके शरीर के कीटाणुओं को आसपास मौजूद लोगों के शरीर में घर बनाने का अवसर मिल जाता है। स्वच्छ जल से स्नान करने से बीमारी के कीटाणु बहते हुये जल के साथ नष्ट होते जाते हैं या बह जाते हैं। यह एक संक्रमणरोधी क्रिया है। शरीर को संक्रामक रोगों से बचाने के लिए स्नान अनिवार्य है। स्नान करने के उपरांत मन स्थिर होता है और मन की अवस्था में भी बदलाव हो जाता है। सिर्फ स्नान ही नहीं बल्कि अंतिम संस्कार के बाद नाखून काटना, मुंडन, और स्नान जैसी प्रक्रिया साथ मे होती हैं जिससे शरीर को पुनः स्वच्छ बनाया जा सके।
जबकि किसी भी शव को दफनाने से कई प्रकार ही समस्या होती है। पहली तो बढ़ती आबादी के साथ रोज मृत्यु को प्राप्त होने वालों को दफनाने के लिए इतनी जमीन नहीं बची है। अगर आप अमेरिका में सभी कब्रिस्तानों को जोड़ेंगे तो डोब्सचा के अनुसार, यह 1 मिलियन एकड़ जमीन को मापेगा। दूसरी दफनाने का पर्यावरण पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वहीं इसमें खर्च भी अधिक आता है। Berkeley Planning Journal के अनुसार, अमेरिका में हर साल पारंपरिक दफन के लिए 30 मिलियन बोर्ड फीट हार्डवुड, 2,700 टन तांबा और कांस्य, 104,272 टन स्टील, और 1,636,000 टन प्रबलित कंक्रीट का उपयोग करते हैं। अकेले कास्केट की लकड़ी की मात्रा लगभग 4 मिलियन एकड़ जंगल के बराबर है और लगभग 4.5 मिलियन घरों का निर्माण कर सकती है।
इस समय दुनिया के कई देश इंसानों के मरने के बाद उनकी लाशों के अंतिम संस्कार के लिए नए रास्ते ढूंढ रहे हैं। क्योंकि आबादी बढ़ने के साथ बाकी दूसरे कामों के लिए जमीन कम होने लगी है। इन कामों में अंतिम संस्कार भी एक प्रमुख है। दाह संस्कार की दर पूरे विश्व में अब बढ़ता जा रहा है। अमेरिका के नेशनल फ्यूनरल डायरेक्टर्स एसोसिएशन के अनुसार वर्ष 2016 में cremation का दर 50.2 प्रतिशत था वहीं, वर्ष 2025 तक 63.8 प्रतिशत और 2035 में 78.8 प्रतिशत की वृद्धि की उम्मीद हैं।
भारत वर्ष की परंपरा, संस्कृति और सभ्यता की एक एक पद्धति को अब विश्व अपनाते जा रहा है। एक एक पद्धति में वैज्ञानिक कारण व्याप्त है चाहे तो योग हो या अन्त्येष्टि। किसी भी प्रकार की बीमारी हो मानसिक या शारीरिक, भारत की वैदिक जीवन में सभी का उत्तर छिपा है, जरूरत है तो बस अपनाने की।