कांग्रेस पार्टी में अंतर्कलह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। टाइम्स ऑफ इंडिया के रिपोर्ट की माने तो मध्यप्रदेश के पश्चात अब उत्तर प्रदेश कांग्रेस में अंतर्कलह स्पष्ट दिखाई दे रही है, जिसका प्रमुख कारण है – वामपंथियों को पार्टी हाईकमान द्वारा उत्तर प्रदेश में प्राथमिकता दिया जाना।
हाल फिलहाल उत्तर प्रदेश के कांग्रेस इकाई में प्रमुख पद केवल उन्हीं को दी जा रही है, जो विशुद्ध वामपंथी संगठनों से संबंध रखते हैं, जैसे कि ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन, रिहाई मंच इत्यादि। रोचक बात तो यह है कि यह सब तब शुरू हुआ है, जब प्रियंका गांधी वाड्रा ने राज्य के कांग्रेस इकाई के कायाकल्प की बात की थी। क्या मोहतरमा इसी कायाकल्प की ओर इशारा कर रही थी?
उदाहरण के लिए गांधी परिवार के निजी सहायक, संदीप सिंह, जेएनयू में AISA के अध्यक्ष रह चुके हैं। इसी प्रकार से पूर्व AISA सदस्य मोहित पांडे उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सोशल मीडिया सेल के अध्यक्ष और AISA के सदस्य दिनेश सिंह राज्य में पार्टी प्रशासन के प्रमुख हैं। परंतु बात यहीं पर नहीं रुकती। आतंकी समर्थक गुट रिहाई मंच को भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने प्रशासन के अहम पदों की कमान दे रही है। जहां अल्पसंख्यक सेल के अध्यक्ष रिहाई मंच के सदस्य रह चुके शाहनवाज़ हुसैन हैं, तो पार्टी के आधिकारिक सोशल मीडिया सेल के प्रमुख युनूस बेग भी रिहाई मंच के सदस्य रह चुके हैं।
वहीं दूसरी ओर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है, जिसमें राम कृष्ण द्विवेदी जैसे कद्दावर नेता शामिल हैं। द्विवेदी ने 70 के दशक में उपचुनाव के दौरान में पूर्व मुख्यमंत्री और लाल बहादुर शास्त्री के परम मित्र रहे त्रिभुवन नारायण सिंह को हराया था। पिछले 30 वर्षों से यूपी में सत्ता से बाहर रही कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की भरपूर कोशिश की, और 2017 में उन्होंने अखिलेश यादव के सत्तारूढ़ पार्टी एसपी के साथ गठबंधन किया। परंतु भाजपा की सुनामी में पार्टी को ऐसा धक्का लगा कि वे इतिहास में पहली बार उत्तर प्रदेश में दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाए।
परंतु प्रियंका गांधी वाड्रा ने 2019 के लोकसभा चुनाव से कोई सीख नहीं ली है। सक्रिय राजनीति में इस चुनाव से प्रवेश करने वाली प्रियंका को कांग्रेस ने उस क्षेत्र की कमान, जहां कांग्रेस का जीतना ही एक सपने के सच होने जैसा था – पूर्वी उत्तर प्रदेश। इसके बावजूद प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनरल सेक्रेटरी बनाया गया, और जितने भी सीटों पर उन्होने ध्यान दिया, या फिर प्रचार प्रसार किया, उन सभी 31 सीटों पर कांग्रेस बुरी तरह हारी, और कई सीटों पर पार्टी के प्रत्याशियों की जमानत धूम धड़ाके के साथ ज़ब्त हुई।
ऐसे कई निर्णयों से बौखलाए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के अनुशासन समिति के अध्यक्ष और पूर्व कैबिनेट मंत्री एके एंटनी को एक पत्र लिखा है, जिसमें कांग्रेस कमेटी के वर्तमान सदस्यों के विरुद्ध सख्त एक्शन लेने की मांग की है। कांग्रेस नेता सिराज महदी के अनुसार, “एक समय जहां कांग्रेस के कद्दावर नेता जहां पार्टी छोड़ रहे हैं, तो वहीं जो पार्टी के साथ हैं, उन्हें अनसुना किया जा रहा है”।
एक अन्य नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “अब चूंकि AISA और रिहाई मंच के सदस्य पार्टी के मूल कमेटियों का हिस्सा बने हैं, तो गांधी परिवार के प्रति जो वफादार थे, उन्हें इन्दिरा की पोती प्रियंका गांधी धक्के मारकर निकाल रही हैं”।
परंतु कांग्रेस का वामपंथियों के प्रति प्रेम कोई नई बात नहीं है। प्रारम्भ से ही पार्टी समाजवादियों के प्रति काफी नरम रही है, वरना और क्या कारण हो सकता है कि हमारे देश का प्रथम रक्षा मंत्री भारत के हितों से ज़्यादा चीन जैसे शत्रुओं के बारे में सोचे। 1962 के युद्ध हारने के पीछे एक प्रमुख कारण तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन का चीन के प्रति हद से ज़्यादा नरम रुख था।
जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे, तब सोनिया गांधी के सुपर कैबिनेट यानि नेशनल एड्वाइज़री काउंसिल में हर्ष मंदर, जॉन ड्रेज़े जैसे विशुद्ध वामपंथी भी भरे थे। कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे देशद्रोहियों के प्रति भी कांग्रेस का प्रेम छुपा नहीं है।
ऐसे में प्रियंका गांधी वाड्रा का यह निर्णय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए उनके खात्मे का संकेत हो सकता है, क्योंकि बंगाल और केरल को छोड़कर देश में वामपंथी राजनीति कहीं भी लोकप्रिय नहीं हो पायी है। लगता है मध्यप्रदेश की धुलाई से कांग्रेस का मन अभी भरा नहीं है।