नई कंपनिया भारत आ रही हैं, उन्हें रोकने के लिए NGOs छाती पीटने से बाज नहीं आएंगे

देश में कुछ अच्छा हो और ये दहाड़े न मारें कैसे हो सकता है

कंपनियां

कोरोनावायरस ने दुनिया के देशों में चीन के खिलाफ गुस्सा भर दिया है, और यही कारण है कि अब चीन में मौजूद सभी कंपनियां जल्द से जल्द अपना सारा सामान समेटकर वहाँ से बाहर निकलना चाहती हैं। उन्हें डर है कि अगर दुनिया के देश चीन पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाते हैं, तो उन्हें एकदम चीन से बाहर निकलकर किसी और देश में व्यापार स्थापित करने का समय नहीं मिलेगा। इसीलिए हजारों कंपनियां अब चीन से बाहर निकलने का विचार कर रही हैं और भारत को इसमें सबसे बड़ा फायदा हो सकता है, क्योंकि ये कंपनियां चीन के मुक़ाबले भारत को ही सबसे बढ़िया इनवेस्टमेंट डेस्टिनेशन मानती हैं। हालांकि, भारत सरकार को यहाँ सबसे ज़्यादा ज़रूरत देश में काम कर रहे भारत विरोधी गैर-सरकारी संगठनों यानि NGOs पर नकेल कसने की है जो हर विकास कार्य में बाधा डालने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं और पर्यावरण रक्षा के नाम पर देश के हितों को नुकसान पहुंचाने का काम करती हैं।

दुनिया चीन को गाली दे रही है और ऐसे में भारत के पास एक बेहतर इनवेस्टमेंट डेस्टिनेशन के तौर पर जगह बनाने का सुनहरा मौका है। Business Standard की एक रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 1 हज़ार कंपनियां लगातार भारत सरकार के संपर्क में हैं और वो अपना व्यापार चीन से हटाकर भारत में स्थापित करना चाहती हैं। सरकार ने पिछले साल आर्थिक मंदी से निपटने के लिए कई आर्थिक सुधारों को अंजाम दिया था, जिनमें सबसे बड़ा बदलाव corporate tax को कम करना था। सरकार ने इसे घटाकर 25.17 प्रतिशत कर दिया था, इसके साथ ही नए उत्पादकों के लिए यह corporate tax सिर्फ 17 प्रतिशत कर दिया गया था, जो कि दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के मुक़ाबले सबसे कम है। सरकार के इन आर्थिक सुधारों का ही परिणाम है कि अब बड़े पैमाने पर दक्षिण कोरियन, अमेरिकी और जापानी कंपनियां चीन को छोड़कर भारत आने को लेकर उत्साहित हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ये गैर-सरकारी संगठन ऐसा होने देंगे?

ये NGO विदेशों से पैसा लेकर पर्यावरण रक्षा और मजदूरों के अधिकारों की आड़ में भारत में विकास कार्यों में रोड़ा अटकाते हैं। वर्ष 2014 में सामने आई intelligence bureau की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में अमनेस्टी, ग्रीनपीस और action aid जैसे गैर-सरकारी संगठन विदेशी सरकारों के पैसों के दम पर भारत में कोयले और न्यूक्लियर पावर प्लांट्स के खिलाफ अभियान चला रहे थे। शायद यही कारण था कि वर्ष 2015 में भारत ने ग्रीसपीस को अपने सारा सामान समेटकर भारत से दफा हो जाने को कहा था।

पिछले कुछ सालों में हम कई ऐसे उदाहरणों को देख चुके हैं जब इन विदेशी संगठनों ने भारत में विकास कार्यों और उद्योगों के खिलाफ अभियान छेड़ा हो। बता दें कि पिछले वर्ष महीनों लंबे चले विरोध प्रदर्शनों के बाद तमिलनाडु सरकार ने पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड से वेदांता ग्रुप को तूतीकोरिन स्थित स्टरलाइट प्लांट को सील करने का आदेश दिया था। आदेश में पर्यावरण और पानी को लेकर बनी राज्य की नीतियों का हवाला देते हुए कहा गया था कि जनहित को देखते हुए इसे हमेशा के लिए बंद किया जाना चाहिए। कुछ एजेंडावादी पर्यावरणविदों ने तब इस प्लांट के खिलाफ जमकर हिंसक प्रदर्शन करवाए थे जिनमें दर्जनों लोगों की जान तक चली गयी थी। माना जाता है कि इन प्रदर्शनों को चीनी कंपनियों और विदेशी एनजीओ द्वारा फंड किया जा रहा था।

सिर्फ इतना ही नहीं, महाराष्ट्र के रत्नागिरि में 3 लाख करोड़ रुपयों का नानर रिफाईनरी प्रोजेक्ट से लेकर महाराष्ट्र में ही आरे मेट्रो रेल प्रोजेक्ट तक, हर जगह इन नकली पर्यावरणविदों की वजह से ही प्रोजेक्ट्स में या तो देरी देखने को मिली है, या फिर इन्हें हमेशा के लिए रद्द करना पड़ा है। जब से राज्य में उद्धव सरकार आई है, उसके बाद से महाराष्ट्र का बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट और हाइपरलूप प्रोजेक्ट भी खतरे में पड़ गया है, जो कि राज्य के विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सकते थे।

इसी प्रकार ये विदेशी संगठन भारत के पूर्वोतर के राज्यों में पर्यावरण के नाम पर खदानों और कोयला प्लांट्स के खिलाफ प्रदर्शन कर भारत की विकास की गाड़ी को धीमा करने के प्रयत्न कर चुके हैं।

आज जब इतनी बड़ी मात्रा में कंपनियां चीन से बाहर आने पर विचार कर रही हैं, तो भारत सरकार को उन्हें आकर्षित करने के साथ-साथ ऐसे NGO पर भी नकेल कसने की आवश्यकता है। वैसे तो भारत सरकार पहले ही Foreign Contribution Regulation Act यानि FCRA के माध्यम से इन भारत-विरोधी संगठनों पर लगाम लगाने की पहल कर चुकी है, लेकिन इस दिशा में सरकार को सावधानी बरतनी रहनी चाहिए।

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