प्रवासी मजदूरों को सड़क पर भटकाया, उन्हें भूख प्यास से तड़पाया, 2020 के चुनाव में नीतीश को कीमत चुकानी पड़ेगी

नीतीश से बिहार की जनता को अब कोई उम्मीद नहीं

बिहार

इस वर्ष के अंत तक देश के सबसे महत्वपूर्ण चुनावों में से एक होने वाला है – बिहार के विधानसभा चुनाव। ये चुनाव कितने महत्वपूर्ण है, इसका अंदाज़ा इसकी तैयारियों से लगाया जा सकता है। नितीश कुमार इस चुनाव के लिए जी जान लगा चुके हैं और वे ये चुनाव शायद जीत भी जाते, यदि बीच में वुहान वायरस नामक महामारी न आती तो।

वुहान वायरस की महामारी ने मानो देश के कई क्षेत्रों के वास्तविक स्वरूप को उजागर किया। कई जगह तो ओडिशा, उत्तर प्रदेश जैसे उदाहरण दिखे, जहां कुशल प्रशासकों की सतर्कता ने इसे एक विकराल रूप धारण नहीं करने दिया, तो वहीं कुछ ऐसे भी उदाहरण थे, जहां अपने छवि से इतर कुछ नेताओं ने वाकई में इस बीमारी को काबू में करने के लिए भरसक प्रयास किए, जैसे तेलंगाना में देखा गया। परंतु कई राज्य ऐसे भी निकले जहां निजी स्वार्थ की पूर्ति ज़्यादा आवश्यक है, और दुर्भाग्यवश बिहार भी उन्हीं में से एक है।

वुहान वायरस से निपटने में यदि कोई राज्य सबसे पीछे है, तो वो है बिहार, जिसके प्रशासक हैं नितीश कुमार। बिहार यूपी से ज़्यादा भिन्न नहीं है, चाहे वो संस्कृति हो, जनसंख्या, या फिर संसाधन, परंतु दोनों राज्यों के नेतृत्व से स्पष्ट सिद्ध होता है कि कौन वुहान वायरस से निपटने में ज़्यादा सक्षम है। योगी आदित्यनाथ जहां स्वयं सभी व्यवस्थाओं का ध्यान रख रहे हैं, तो वहीं नितीश कुमार अभी राहत शिविर का भी दौरा नहीं किए हैं।

पूर्व राजद सांसद जेपी यादव के अनुसार, “जब योगी आदित्यनाथ ने दिहाड़ी मजदूरों को लाने के लिए बसें भेजी, और येद्युरप्पा ने इसी काम के लिए मजदूरों को कई सहूलियतें प्रदान की, तो वहीं नितीश कुमार ऐसी गंभीर स्थिति में मजदूरों को उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया”

लोजपा सांसद चिराग पासवान तक को नितीश सरकार को आड़े हाथ लेना पड़ा, जब उन्होंने कहा, “हमें देशभर में स्थित बिहारी कामगारों से कॉल आ रहे हैं, परंतु कुछ भी ठोस कदम नहीं उठाया गया। मेरा मुख्यमंत्री साहब से बात करना भी निरर्थक रहा”

नितीश कुमार के नेतृत्व में प्रशासन इतना लापरवाह है कि बिहार का सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कॉलेज पीपीई यानि पर्सनल प्रोटेक्टिव ईक्विपमेंट की कमी से जूझ रहा है। पीपीई के लिए कर्मचारियों को सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन भी करना पड़ा। परंतु हम भूल रहे हैं, ये तो वही नितीश कुमार हैं, जिनके लिए चमकी बुखार से मरने वाले बच्चे कोई मायने नहीं रखते।

2011 की जनगणना के अनुसार बिहार से 2.5 करोड़ मजदूर काम के लिए बाहर निकलते हैं, परंतु नितीश कुमार ने इन्हें इन्हीं के हाल पर छोड़ दिया है। आप उस व्यक्ति से गंभीरता की क्या आशा कर सकते हैं जो ये कहे, ‘’बसों से लोगों को उनके राज्यों तक पहुंचाने से लॉकडाउन का मकसद ही खत्म हो रहा है।  बेहतर होगा कि फंसे हुए लोगों को वहीं पर खाना और अन्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएं।‘’

बिहार के प्रवासी मजदूरों के लिए नीतीश कुमार ने कहा कि दिल्ली में ही हम व्यवस्था करेंगे. इसके लिए दिल्ली स्थित बिहार भवन में तीन हेल्पलाइन नंबर शुरु किए गए थे। नीतीश ने यहां तक दावा किया था कि बिहार भवन में लोगों के रहने और खाने की व्यवस्था की गई । हालांकि, जब पत्रकारों ने बिहार भवन का दौरा किया तो हकीकत कुछ और ही थी। रविवार के दिन बिहार भवन में ताला लटका था। इसके साथ ही हेल्पलाइन नंबर भी बंद मिला।

हालांकि, काफी संख्या में लोग दिल्ली से बिहार बिना जांच के ही पहुंच गए जिस पर देश में काफी सवाल उठने लगे। ऐसे में फजीहत से बचने के लिए बिहार सरकार ने आदेश दिए कि जब प्रवासी लोग बिहार में दाखिल होंगे तो उन्हें 14 दिनों तक सरकारी कैंपों में रखा जाएगा। एक ओर जहां उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ये सुनिश्चित कर रही है कि कोई भी मजदूर सुविधाओं के लिए भटके नहीं, तो वहीं नितीश ने अधिकांश मजदूरों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया है।

अब ऐसे में बिहार के मजदूर नीतीश कुमार के विश्वासघात को यूं ही तो जाने नहीं देंगे, क्योंकि उनका भी बहुत में काफी गहरा प्रभाव है। इस बार चुनाव में नीतीश बाबू का हारना तय है, और ऐसे में भाजपा ने यदि अलग होने का निर्णय नहीं लिया, तो इसका बहुत गंदा प्रभाव पड़ सकता है, गेहूं के साथ घुन भी पिस जाएगा। ऐसे में भाजपा को अपनी रणनीति में बदलाव लाकर ऐसे अकर्मण्य प्रशासक का साथ अविलंब त्याग देना चाहिए और ये समय ऐसा करने के लिए सबसे अनुकूल भी है।

 

Exit mobile version