स्क्रॉल, वायर, द प्रिंट जैसी वामपंथी मीडिया तब्लीगी जमात का खुलकर बचाव कर रही हैं

वामपंथी मीडिया का स्वभाव कभी नहीं बदल सकता!

तब्लीगी जमात

जमाना बदल सकता है, असम्भव भी संभव हो सकता है, पर अगर कुछ नहीं बदल सकता है तो वह है वामपंथी मीडिया का स्वभाव। जब कुछ नहीं बचा है तो अब यह लोग तब्लीगी जमात के उत्पाती सदस्यों का बचाव करने पर उतर आए।

उदाहरण के लिए स्क्रॉल की इस रिपोर्ट को ही देख लीजिए। यहां इंदौर में स्वास्थ्य कर्मियों पर हमला करने वालों की तुलना 1897 में फैले ब्यूबोनिक प्लेग की महामारी में अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों का विरोध करने वाली जनता से कर दी। 1897 में फैली महामारी के कारण भारत में त्राहिमाम मचा हुआ था, परन्तु उससे भी ज़्यादा भयानक था अंग्रेज़ों की महामारी को नियंत्रित करने वाली नीति, जिसके कारण महामारी से कम और अंग्रेज़ों के तौर तरीकों से लोगों की जानें ज़्यादा गईं।

बता दें कि वुहान वायरस से भारत में कुल 5700 से ज़्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं, और अब तक 166 से ज़्यादा लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। यूं तो वुहान वायरस के मार्च खत्म होते होते 1500 ही मामले थे, परन्तु तब्लीगी जमात के सदस्यों में संक्रमण की खबर सामने आते ही ये मामले दिन प्रतिदिन बढ़ने लगे। आज कुल मामले 5700 से ज़्यादा है, जिसमें से आधे से ज़्यादा तो केवल और केवल तब्लीगी जमात की देन है।

अब ऐसे में भला द प्रिंट कैसे पीछे रहता? निष्पक्ष दिखने की जद्दोजहद में ये पोर्टल अक्सर अपने हद से आगे निकल जाता है। इसके चक्कर में अब इसने कई कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं को अपने पोर्टल पर मंच प्रदान किया और शीर्षक भी लिखा – ये गलती हो सकती है, पर भारत के खिलाफ साजिश है – मुस्लिम नेताओं का जमात पर संदेश

परन्तु असल बेशर्मी तो द वायर ने दिखाई थी। जब गाज़ियाबाद के मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने पुलिस को शिकायत करते हुए लिखा था कि गाज़ियाबाद में तब्लीगी जमात के सदस्यों को quarantine किया गया है, वे न सिर्फ अस्पतालों में उत्पात मचा रहे हैं, अपितु महिला स्टाफ, विशेषकर नर्सों के साथ बदतमीजी भी कर रहे हैं, और उनके साथ छेड़खानी भी कर रहे हैं , तो द वायर की स्टार पत्रकार आरफा खानुम शेरवानी को लगता है की यह केंद्र सरकार की मुसलमानों को दबाने की कोई साजिश है। आरफा खानुम शेरवानी के अनुसार, तबलीगी इस देश के सबसे पढ़े लिखे नागरिकों में नहीं आते। पर मैं नहीं मानती कि वे डॉक्टरों पर थूकेंगे और महिलाओं के साथ अभद्रता कर सकते हैं। वे बड़े ही नेकदिल, निस्स्वार्थ मनुष्य हैं। प्लीज़, अपना यह प्रोपगैंडा बंद करें”।

यह वही feminist पत्रकार आरफा खानुम शेरवानी हैं, जिनके लिए बिना सबूत, बिना गवाह के दिल्ली पुलिस इस बात की दोषी था कि उन्होंने जामिया की छात्राओं के साथ छेड़खानी की, क्योंकि ऐसा संस्थान के छात्राओं ने कहा था। परंतु यदि तब्लीगी जमात के सदस्य गाज़ियाबाद के अस्पतालों में महिलाओं के साथ अभद्रता करें, तो वो झूठी खबर कैसे हो गई?  अब इनका फेमिनिज्म कहां गया? सिद्धार्थ वरदराजन के फेक न्यूज़ कैंपेन के बारे में अब जितना काम बोलें उतना ही अच्छा।

सच कहें तो कोरोना जिहादियों ने निकृष्टता की सभी सीमाएं पार कर दी हैं। लेकिन उससे भी ज़्यादा खून खौलाने वाली बात तो यह है कि कुछ पत्रकार उनका सिर्फ इसलिए बचाव करते हैं, ताकि तुष्टिकरण की राजनीति पर कोई आंच ना आए। इनके लिए तो अपशब्द भी कम लगेंगे।

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