Liberalisation को कूड़े में फेंककर आर्थिक राष्ट्रवाद को अपना रहा है भारत, देश का आर्थिक सुपर पॉवर बनना तय

जो काम बडे-बड़े अर्थशास्त्री न कर सके, वो काम हमारे मोदी जी कर रहे हैं

कोरोना की चुनौती से लड़ने के लिए पीएम मोदी पहले ही देशवासियों को आत्मनिर्भर बनने की सलाह दे चुके हैं। देशवासियों के नाम अपने आखिरी सम्बोधन में पीएम मोदी ने कहा था कि “हमें लोकल के लिए वोकल बनना होगा। इस प्रकार हमें ना सिर्फ लोकल चीजों को इस्तेमाल करना होगा बल्कि उन्हें बढ़ावा भी देना होगा”। ऐसा लगता है मानो पीएम मोदी अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर भी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना चाहते हैं, ताकि कोरोना की चुनौती से निपटा जा सके। आर्थिक राष्ट्रवाद सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया का नया मूल मंत्र बनता जा रहा है। अमेरिका में जब से ट्रम्प सरकार सत्ता में आई है, तब से वे आर्थिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। वे ना सिर्फ सभी अमेरिकी कंपनियों को अमेरिका में manufacture करने की सलाह दे रहे हैं, बल्कि Make America Great Again (MAGA) के अभियान को भी आगे बढ़ा रहे हैं।

अब भारत भी उसी राह पर निकल चुका है, या कहिए भारत अपनी ऐतिहासिक आर्थिक नीतियों की तरफ दोबारा लौटकर जा रहा है, जहां उदारीकरण से ज़्यादा महत्व राष्ट्रवाद को दिया जाता है। भारत चाणक्य का देश है जिन्होंने आज से सदियों पहले ही “Nation first” यानि “सबसे पहले अपना देश” का मंत्र दे दिया था। इसी मंत्र का इस्तेमाल करते हुए चीन तो आगे बढ़ गया, लेकिन भारत उदारीकरण का दास बनकर रह गया। भारत ने उदारीकरण का पालन करते हुए कई संधिया की, कई फ्री ट्रेड एग्रीमेंट किए, लेकिन इसकी आड़ में दूसरे देशों ने ही भारत का फायदा उठाया। उदाहरण के लिए भारत ने वर्ष 2009 में ASEAN के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट समझौता किया था लेकिन आज मोदी सरकार को इस समझौते पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है, क्योंकि इस समझौते का सबसे अधिक फायदा भारत की बजाय अन्य ASEAN देश उठाते रहे। भारत ने पिछले वर्ष RCEP में शामिल होने से भी इंकार कर दिया, जिसके जरिये भारत ने लोकल कंपनियों को समर्थन दिया।

कोरोना के कारण जिस तरह दुनियाभर के देशों ने अपने-अपने बॉर्डर को बंद कर लिया है, और वैश्विक सप्लाई चेन को जो झटका लगा है, उसने उदारीकरण और वैश्वीकरण पर कई बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। आज सब देश “Me, myself and I” के सिद्धांत का पालन कर रहे हैं, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है क्योंकि यही समय की मांग भी है। भारत जिस प्रकार अपने इम्पोर्ट्स को कम करने और एक्स्पोर्ट्स को बढ़ाने की कोशिश में जुटा है, वह दिखाता है कि सरकार आर्थिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रही है। इस तंत्र में विदेशी कंपनियों को बाज़ार की पहुँच तो दी जाती है, लेकिन बहुत ही सीमित तरीके से! उदाहरण के लिए चीनी मॉडल को देखा जा सकता है। चीन ने आर्थिक विकास के लिए अपने यहाँ विदेशी कंपनियों को बेहद सीमित पहुँच दी, और अपनी कंपनियों को बढ़ावा दिया।

चीन ने BRI के तहत भी जिन देशों में अपने प्रोजेक्ट्स लॉंच किए, वहाँ सिर्फ अपनी ही कंपनियों को ठेके दिये और अपने ही लोगों को रोजगार भी दिया। चीन ने बड़े ही शातिर तरीके से दूसरों देशों के पैसों से अपने लोगों की जेबें भरी, और उल्टा उन देशों पर एहसान भी जताया। इस मॉडल से कोई सीख लेना कोई अच्छा विचार तो नहीं कहा जाएगा लेकिन इससे आप चीन के आर्थिक राष्ट्रवाद को भली-भांति समझ सकते हैं। अब भारत भी आर्थिक राष्ट्रवाद के रास्ते पर चलने लगा है, तो इससे आने वाले सालों में भारत का आर्थिक विकास तेजी पकड़ सकता है।

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