‘चीन से भारत आ रही कंपनियों से कोई फायदा नहीं’, वामपंथी अभिजीत बनर्जी चीन के ऑफिशियल प्रवक्ता बन गए हैं

देखो इनके पेट में कैसे दर्द उठ रहा है

अभिजीत बनर्जी

अभिजीत बनर्जी एक बार फिर सुर्खियों में है, और इस बार भी गलत कारणों से। जनाब अब गरीबी उन्मूलन से हटकर कॉरपोरेट अर्थशास्त्र पर ज्ञान देने आए हैं। बनर्जी के अनुसार भारत में जो भी विदेशी कंपनी आना चाहती है, उससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

अभिजीत बनर्जी के अनुसार, मुझे नहीं लगता कि भारत में चीन से आने वाली विदेशी कम्पनियों के कारण कोई अहम बदलाव होगा।” इतना ही नहीं, जनाब आगे कहते हैं,चीन पर फालतू में कोरोना वायरस को फैलाने का इल्ज़ाम लगाया जा रहा है।” 

इसी को कहते हैं, नाच ना जाने आंगन टेढ़ा। अर्थशास्त्र के नोबेल स्मारक पुरस्कार से सम्मानित होने वाले अभिजीत बनर्जी ने अपना अधिकांश समय वेलफेयर अर्थशास्त्र समझने और पढ़ाने में बीताया है। परन्तु इतने बड़े अर्थशास्त्री होने के बावजूद इन्हें ये नहीं समझ आया कि इतने बड़े पैमाने पर कम्पनियों का चीन से भारत में प्रस्थान करने पर ना केवल रोजगार, अपितु इंफ्रास्ट्रक्चर सहित अनेक पैमानों पर भारत का बहुमुखी विकास संभव होगा।

परन्तु अभिजीत महोदय यहीं पर नहीं रुके। जनाब ने मजदूर संकट के लिए भी केंद्र सरकार को पूर्ण रूप से दोषी ठहराते हुए कहा, ये केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि सभी प्रवासी मजदूर सही सलामत अपने घर पहुंचेंगे”। मजे की बात तो यह है कि अभिजीत बनर्जी ममता बनर्जी के सलाहकार हैं, जो प्रवासी मजदूरों के पलायन के संकट से निपटने की बात तो दूर, वुहान वायरस से संक्रमण को रोकने में भी सुपर फ्लॉप साबित हुए हैं।

सच कहें तो अभिजीत बनर्जी और अमर्त्य सेन के बकवास पर आवश्यकता से ज़्यादा ध्यान देने के कारण ही भारत की आकांक्षाओं को नुकसान पहुंचा है। ये एक ही विचारधारा का पालन करतें हैं, जिसके अनुसार भारत एक गरीब देश था, है और सदैव एक गरीब राष्ट्र ही रहेगा, और ऐसे देशों को वेलफेयर अर्थशास्त्र के अलावा कुछ नहीं करना चाहिए।

दिलचस्प बात यह है कि ऐसे लोगों को अर्थशास्त्री भी माना जाता है, आखिर इनके पास नोबेल पुरस्कार का तमगा जो होता है। ये और बात है कि आर्थिक नोबेल पुरस्कार असली नोबेल पुरस्कार भी नहीं माना जाता। परन्तु इस पुरस्कार को देने वाली ज्यूरी भी केवल उन्हीं अर्थशास्त्रियों को प्राथमिकता देती है जो आजीवन भारत को एक गरीब देश बनाए रखने की मंशा रखते हैं। इसीलिए यह पुरस्कार केवल उन्हीं भारतीयों को मिला है, जो इसी विचारधारा के समर्थक हैं। पहले अमर्त्य सेन को वेलफेयर इकोनॉमिक्स के लिए 1998 में यह पुरस्कार मिला, और अभी पिछले वर्ष अभिजीत बनर्जी को इसी दिशा में काम करने के लिए यह पुरस्कार मिला था।

हालांकि, जो भारतीय फ्री मार्केट इकोनॉमी पर ज़ोर देते हैं, उन्हें पता नहीं क्यों इस पुरस्कार से वंचित रखा गया है। चाहे वह जगदीश भागवती हों, श्री बीआर शेनॉय हो या फिर रघुराम राजन ही क्यों ना हो, परन्तु इनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों के बाद भी इन्हें पुरस्कार से वंचित रखा गया है।

अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी यूं ही भारत को पीछे नहीं रखना चाहते। वे अपने ऊल जलूल तर्कों से वे भारत के हुक्मरानों को अपने वश में रखना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि भारत एक संपन्न राष्ट्र बने, क्योंकि इससे उनके कुत्सित एजेंडे को नुकसान पहुंचेगा।

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