पाताल लोक- हिन्दू विरोध, अगड़ा-पिछड़ा, लिबरलपंथी, नग्नता, गाली गलौज सब है इस सीरीज में

पूरी सीरीज में है- एजेंडा ऊंचा रहे हमारा

पाताल लोक, अमेजॉन प्राइम, हिंदू विरोध

हाल ही में अमेजॉन प्राइम पर पाताल लोक नाम की एक सीरीज रिलीज हुई है. जिसका हम हॉनेस्ट रिव्यू देने जा रहे हैं. इस सीरिज में क्या छिछालेदर मचाया गया और क्या कुछ अच्छा देखने को मिला आइये जानते हैं.

विशेष सूचना –जिन्हें स्पॉइलर से नफ़रत है, या जो एजेंडावादी कंटेंट के प्रेमी हैं, वे कृपया अभी रस्ता नाप लें, आगे का सफर आपके लिए काफी कष्टकारी होगा। आज्ञा से जनहित में जारी

सत्या और हासिल का अनुसरण करते हुए OTT प्लेटफॉर्म पर सेक्रेड गेम्स और मिर्ज़ापुर क्या सफल हुए सबको neo noir स्टाइल क्राइम ड्रामा बनाने की होड़ मची हुई थी। अब कुछ तो भौकाल और रंगबाज की तरह बढ़िया चले, तो कुछ सेक्रड गेम्स के दूसरे सीज़न की भांति औंधे मुंह गिर पड़े। अब इसी क्षेत्र में एंट्री मारी है अनुष्का शर्मा निर्मित और प्रोसीत रॉय द्वारा निर्देशित वेब सीरीज पाताल लोक। इसमें मुख्य भूमिका में है जयदीप अहलावत, और उनका साथ दिया है नीरज काबी, अभिषेक बैनर्जी इत्यादि जैसे कलाकारों ने।

यह कहानी है दिल्ली पुलिस के एक इंस्पेक्टर हाथी राम चौधरी की, जिसे पत्रकार संजीव मेहरा की हत्या का प्रयास करने वाले लोगों को ढूंढने का जिम्मा सौंपा जाता है। क्या यह हमला केवल अटेम्प्ट टू मर्डर था या इसके पीछे कोई गहरी साजिश रची गई थी? यह पूरी वेब सीरीज और उसके नौ एपिसोड इसी के इर्द गिर्द घूमती है।

इस सीरीज को देखकर मेरे मन में केवल एक प्रश्न उठा है – यह क्या है? क्या इसके लिए क्रिटिक्स ने तारीफ में इतने कसीदे गढ़े थे। सच कहें तो यदि आप कई दिनों से नींद के लिए तरसे हुए हो, तभी इसे देखने का कष्ट करें। निस्संदेह इस सीरीज के प्रमुख अभिनेताओं – जयदीप अहलावत, नीरज काबी और अभिषेक बैनर्जी ने सही काम किया है, पर यदि अभिनय ही सब कुछ होता, तो कागज़ के फूल, या फिर रोग क्यों फ्लॉप हुई थी?

इसके पीछे प्रमुख है एक कॉमन और घिसा-पिटा फॉर्मेट को आवश्यकता से ज़्यादा घिसना। किसी बात को बताने का एक अलग और सरल तरीका होता है, और उसी बात को जब जबरदस्ती जनता पे थोपा जाता है तो उसकी पोल खुल जाती है। यदि आपको विश्वास ना हो, तो पाताल लोक में ऐसे कई बातें हैं, जो चीख चीखकर कहती हैं – एजेंडा ऊंचा रहे हमारा…

1) इस फिल्म का प्रमुख विलेन अपने घृणित कार्य से पहले नियम से भगवान शिव की ध्यान लगाकर पूजा करता है। जो डाकू होता है, वह बड़ा ही धार्मिक होता है, और वह कहता है कि बाभन देवता की पूजा करो।

2)  सीरीज में जो मुस्लिम किरदार है, वो साक्षात देव माणुस होता है, जिसे हर कोई सताता है। उसके साथी उस पर फब्तियां कसते, उसे IS से संबंधित बताते हैं, यहां तक कि होम सेक्रेटरी के पद पर बैठा व्यक्ति उससे अजीबोगरीब सवाल पूछता है। मतलब हिन्दू धर्म और उसके लोग कभी अच्छे और सच्चे हो ही नहीं सकते और अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान कभी गलत हो ही नहीं सकता।

3) जो वामपंथी पत्रकार है, वह सच्चा है, निष्पक्ष है, और उससे अच्छा कोई नहीं। नकारात्मक किरदार के पीछे हमेशा एक दर्दनाक बैक स्टोरी होगी ही होगी। मोदी सरकार को बार बार निशाने पर लिए जाएगा। इसमें बताया गया है कि सच्ची पत्रकारिता करने वाले को कंपनी फायरिंग का धमकी देती है.

4) कॉरपोरेट जगत के पास देश में दंगे कराने और हिन्दू मुस्लिम करने के अलावा कुछ भी नहीं है जीवन में करने को। ब्राह्मण लोग कान पर जनेऊ चढ़ाकर यौन सुख का अनुभव लेते हैं।

5) बाजपेई जाति का ब्राह्मण नेता है, वो दलितों का मसीहा है, उनके घर जाता है. साथ खाना खाता है लेकिन जैसे ही वहां से निकलता है तो गंगा जल से अपनी सफाई करता है. यानि ब्राह्मण नेता दलित विरोधी ही होते हैं इस सीरीज में दिखाया गया है.

मतलब सौ की सीधी एक बात, हिंदू धर्म से जुड़ा हुआ हर व्यक्ति या तो भ्रष्टाचारी होता है या फिर घटिया। जैसे इस सीरीज में मंदिर के भीतर ही लाश गाड़ते हुए दिखाई जाती है। मंदिर से ही हत्याओं का धंधा चलता है। ट्रेन में हिंदू लोग मुस्लिम शख्स की मॉब लिंचिग कर देते हैं।

इस सीरीज में पुलिस की जो छवि पेश की गई है, वह निहायती निकृष्ट, बेबस और अकर्मण्य लोगों से भरी हुई फौज की है। माना कि पुलिस वाले इज्जतदार लोग की श्रेणी में अधिकतर नहीं आते, पर हर कोई हाथी राम चौधरी या सरताज सिंह की तरह एकदम बेबस और लाचार नहीं होता। वास्तव में पुलिसवाले कुछ भौकाल के नवीन सिकेरा और कुछ रंगबाज के सिद्धार्थ पांडेय के बीच के लेवल के होते हैं।

इसके अलावा इस सीरीज में ज़बरदस्ती गालियां और अश्लील दृश्य ठूंसे गए हैं। कुछ तो इतने अश्लील हैं कि ऑल्ट बालाजी के फ़ूहड़ बी ग्रेड सीरीज इनसे ज़्यादा सयाने लगेगें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कुछ क्राइम ड्रामा में ऐसे सीन कभी कभी एक बढ़िया इफेक्ट डालते हैं, पर तभी, जब इसे नेचुरली समाहित किया जाए, ज़बरदस्ती नहीं। पर यदि कोई इस पर आपत्ति जताए, तो फिर वही पुराना डायलॉग शुरू – ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है, भारत नॉर्थ कोरिया बनता जा रहा है।

एक फिल्म में मज़ाक मज़ाक में एक बड़ी गंभीर बात कही गई थी, जो इस सीरीज पर भी लागू होती है – बात रखने का तरीका होता है, जिन्हें ख्याल रखना हो, वह taunt मारकर बात नहीं कहते। पाताल लोक के निर्माताओं ने यदि इस संवाद को थोड़ा भी आत्मसात किया होता, तो यह इतनी विषैली और पूर्वाग्रह से ग्रसित ना होती।

TFI की ओर से इसे मिलते हैं पांच में से एक स्टार।

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