व्यापार हो या सैन्य शक्ति, हर क्षेत्र में अब तक अमेरिका का ही एकाधिकार रहा है। हालांकि, पिछले कुछ समय में आर्थिक तौर पर चीन ने लगातार अमेरिका को चुनौती देने की कोशिश की है, और यह विश्व यूनि-पोलर ना रहकर बाय-पोलर बनने की ओर लगातार अग्रसर होता दिखाई दे रहा है, जिसके एक छोर पर अमेरिका और उसके साथी दिखाई देते हैं, तो दूसरी ओर पर चीन और इसके साथी दिखाई देते हैं।
इसी का एक नमूना हमें हाल ही में देखने को मिला जब चीन ने यूरोप के कई देशों, कनाडा, ब्राज़ील, मेक्सिको और पाकिस्तान जैसे 18 अन्य देशों के साथ मिलकर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के झगड़ों को सुलझाने के लिए वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइज़ेशन से इतर एक अलग संस्था Multi-Party Interim Appeal Arbitration Arrangement यानि MPIA बनाने का फैसला ले लिया।
इस संस्था में अमेरिका, भारत, जापान और कोरिया जैसे अन्य दिग्गज व्यापारी देश शामिल नहीं हैं, जिसके बाद यह माना जा रहा है कि विश्व में व्यापार के मामलों पर अब पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी है और अमेरिका और चीन एक दूसरे को आँख दिखाने के लिए ऐसी प्रयास कर रहे हैं।
बता दें कि अमेरिका और चीन पिछले दो वर्षों से भी ज़्यादा समय से ट्रेड वॉर लड़ते आ रहे हैं, जिसके कारण अमेरिका ने ना सिर्फ चीन को आड़े हाथों लिया है, बल्कि WTO को भी उसने खरी-खरी सुनाई है। ट्रम्प प्रशासन ने शुरू से ही WTO पर अमेरिका के खिलाफ पक्षपात करने के आरोप लगाए हैं।
इसी के बाद वर्ष 2017 में अमेरिका ने WTO की ट्रेड डिसप्यूट बॉडी में नए जजों की भर्ती पर रोक लगा दी थी, जिसके बाद पिछले वर्ष दिसंबर में यह बॉडी पूरी तरह से निष्क्रिय हो गयी। इसी के बाद चीन समेत दुनिया के 19 देशों ने मिलकर MPIA नाम से एक अलग trade dispute बनाने का फैसला लिया था।
हालांकि, यह नई संस्था अमेरिका और भारत जैसे देशों के बिना अधूरी है, या फिर कहिए कि इस संस्था का कोई औचित्य नहीं बचता, ऐसा इसलिए क्योंकि विश्व में सबसे ज़्यादा व्यापार संबंधी शिकायतें अमेरिका के खिलाफ ही आती हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 1995 से लेकर वर्ष 2018 तक अमेरिका के खिलाफ सबसे ज़्यादा 152 शिकायतें WTO में दर्ज की गयी थीं, इसके बाद नंबर आता है ईयू का और फिर चीन का। अब अगर इस नई संस्था के किसी भी सदस्य को भारत या अमेरिका या जापान जैसे देशों के खिलाफ शिकायत करनी होगी, तो वो ऐसा कर ही नहीं पाएगा क्योंकि ये देश MPIA के सदस्य हैं ही नहीं।
ऐसे में चीन और यूरोप का ये नई संस्था बनाने का कदम रणनीतिक ज़्यादा लगता है, जिसके कारण भारत ने भी अब तक इस नए group को जॉइन नहीं किया है। चीन और उसके साथियों ने यह नयी संस्था बनाने का फैसला तब लिया था, जब दुनिया में कोरोना महामारी नहीं आई थी।
कोरोना से पहले यूरोप और चीन के संबंध काफी अच्छे थे, जिसके कारण ही ये सभी देश एकसाथ मिलकर नई संस्था बनाने के लिए राज़ी हुए थे, लेकिन अब कोरोना के बाद हालात बदल गए हैं और खुद यूरोप और चीन में दूरियाँ बढ़ती दिखाई दे रही हैं, जिसके बाद इस नई trade dispute body के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा है। कोरोना से पहले चीन जमकर इस विश्व को बाय-पोलर बनाने की कोशिश कर रहा था, हालांकि कोरोना के बाद शायद ही चीन का यह सपना कभी पूरा हो सके।