वुहान वायरस ने कई राज्यों और वहां के प्रशासकों की मानसिकता को काफी हद तक उजागर किया है। जहां एक ओर उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्य वुहान वायरस से लड़ने में एक अद्भुत मिसाल पेश कर रहे हैं, तो वहीं बिहार जैसे राज्य भी हैं, जहां प्रवासी मजदूरों की समस्या पर सरकार की बेरुखी के कारण उसे आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
एक प्रवासी मजदूर ने हाल ही में अपना दुख सुनाते हुए बताया-
“जब हम यूपी में थे, तो पुलिस वालों ने आवाजाही में काफी सहायता की। उन्होंने हमें खाना, बिस्किट और पानी भी दिया। पर बिहार में बस की बात तो छोड़िए, कोई भी हमसे बात करने को तैयार नहीं है, और सब हमसे दूर भाग रहे हैं“।
ये व्यथा उन प्रवासी मजदूरों की है, जो बिहार के छपरा जिले की ओर जा रहे थे। उन्होंने यह स्वीकार किया कि उत्तर प्रदेश में उन्हें किसी प्रकार की समस्या नहीं थी, जबकि बिहार में उस तुलना में उनके साथ सौतेला व्यवहार किया गया था।
हालांकि यह अपनी तरह का इकलौता मामला नहीं है। कोरोना महामारी के समय में प्रवासी मजदूरों के साथ धोका करने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अब अन्य राज्य में रहने वाले छात्रों के साथ भी धोखा किया था। नीतीश कुमार ने कोटा में फंसे छात्रों को वापस बुलाने से ना सिर्फ इनकार किया, बल्कि यह भी कहा कि वे धनाढ्य परिवारों से संबंध रखते हैं।
हद तो तब हो गई जब नीतीश कुमार ने फंसे हुए प्रवासी मजदूरों और छात्रों को केवल सहायता देने से इनकार ही नहीं किया, बल्कि योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं से भी ऐसा करने के लिए सवाल किया। उन्होंने यह भी कहा कि कोटा में पढ़ने वाले छात्र अमीर परिवारों से हैं इसलिए उन्हें किसी सहायता की आवश्यकता नहीं है। सीएम नीतीश कुमार ने तंज़ कसते हुए कहा–
‘कोटा में पढ़ने वाले छात्र संपन्न परिवार से आते हैं। अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों के साथ रहते हैं, फिर उन्हें क्या दिक्कत है। जो गरीब अपने परिवार से दूर बिहार के बाहर हैं फिर तो उन्हें भी बुलाना चाहिए। लॉकडाउन के बीच किसी को बुलाना नाइंसाफी है। इसी तरह मार्च के अंत में भी मजदूरों को दिल्ली से रवाना कर लॉकडाउन को तोड़ा गया था।‘
अब ऐसे हृदयहीन नेता को पूरी दुनिया में ढूँढना नामुमकिन है जो अपने नागरिकों के प्रति इस प्रकार का उदासीनता रखता हो। परन्तु यह वही नीतीश कुमार हैं, जिनके लिए चमकी बुखार से तड़प रहे बच्चे भी कोई मायने नहीं रखते।
पिछले साल जून-जुलाई के बीच चमकी बुखार के कारण बिहार के कई क्षेत्रों में बच्चों की असामयिक मृत्यु हुई, जिसके कारण नीतीश कुमार की सरकार को काफी आलोचना का सामना करना पड़ा। मुजफ्फरपुर में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के कारण बड़ी संख्या में बच्चों की मौत ने नीतीश कुमार के कुशासन की पोल खुल गयी थी। बिहार में यह बीमारी काफी पहले से है लेकिन नीतीश कुमार ने अपने 13 साल के शासनकाल में इस बीमारी से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया।
कुछ दावों की माने तो इस बीमारी के कारण पहले भी मासूमों की मौत हो चुकी है। इतनी मौतों के बाद भी नीतीश सरकार ने इस मामले को गंभीरता से कभी नहीं लिया। हमेशा उन्होंने सब कुछ ठीक होने का ढोंग किया। यही नहीं हर बार की तरह उन्होंने बस मृतकों के परिवार को मुआवजा देने की घोषणा कर अपनी ज़िम्मेदारी से पलड़ा झाड़ लेना उनकी राजनीति का हिस्सा रहा है। उनके मंत्री भी यही कहते हैं कि अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं।
इसके अलावा जब बिहार बाढ़ से प्रभावित था तब भी नीतीश सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह सही तरीके से नहीं किया, और तो और इसके लिए भी वो केंद्र सरकार की और देख रहे थे। नीतीश कुमार ने केंद्र से मदद की दरकार की लेकिन अपने स्तर पर कोई उचित कदम नहीं उठाये। हर बार नीतीश कुमार स्थिति का आंकलन करने की बजाय और उचित कदम उठाने की बजाय पल्ला झड़ने की भरपूर कोशिश करते हैं। स्थिति तो इतनी दयनीय हो गयी कि स्वयं उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी बाढ़ में फंसे हुए दिखाई दिये।
कोरोना वायरस के प्रकोप के बावजूद सभी मुख्यमंत्रियों ने बीमारी से लड़ने के लिए अपनी पूरी क्षमता लगा दी है। कोरोना के खिलाफ इस लड़ाई नेताओं के चरित्र और नेतृत्व क्षमता को भी सामने ला दिया है। अभी तक ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ कोरोना खिलाफ लड़ाई में सबसे अच्छे नेताओं में से कुछ साबित हुए हैं और बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने लगभग डेढ़ दशक के अनुभव के साथ सबसे खराब मुख्यमंत्री के तौर पर गिने जा रहे हैं।