शायद संयुक्त राज्य अमेरिका चीन को सबक सिखाने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता है। इसीलिए अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने अभी कुछ चीनी प्रशासन के विरोधी एक्टिविस्ट से मुलाकात की, जिन्होंने चीनी प्रशासन के दमनकारी नीतियों को माइक पॉम्पियो से साझा भी किया।
अब आप सोच रहे होंगे, इसमें ऐसी क्या खास बात है। दरअसल, यह एक्टिविस्ट कोई और नहीं, बल्कि उसी लोकतन्त्र समर्थक अभियान का हिस्सा थे, जिसे 1989 में Tiananmen Square पर चीन ने बुरी तरह कुचल दिया था। ऐसे में इस अभियान के सदस्यों से मुलाकात कर और उनकी आकांक्षाओं को मंच देकर माइक पॉम्पियो ने निस्संदेह चीन को खुलेआम चुनौती दी है।
पर ये Tiananmen Square नरसंहार था क्या? आखिर इसके उल्लेख मात्र से चीन के कम्यूनिस्ट शासन के हाथ पांव क्यों फूलने लगते हैं? इसके लिए हमें जाना होगा 1989 में, जब विश्व कई बड़े बदलाव से गुजर रहा था।
तब शीत युद्ध समाप्ति के कगार पर था, और इसके साथ ही सोवियत संघ भी विघटित होने के मुहाने पर था। कम्युनिज्म को पटक-पटक के धोया जा रहा था और जर्मनी दोबारा एक अखंड राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर था। ऐसे में कम्युनिस्ट चीन के नागरिकों में भी आजादी की अलख जगी और उन्होंने चीन में लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुनः स्थापना की मांग की।
जून 1989 में चीन में लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग ने एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया था। शांतिपूर्ण तरीके से शिक्षक, लेखक, छात्र बीजिंग के प्रसिद्ध Tiananmen Square पर एकत्रित हो चीन में लोकतांत्रिक व्यवस्था के बहाली की मांग कर रहे थे।
परन्तु चीन के कम्यूनिस्ट शासन के लिए मानो यह मांग किसी चुनौती से कम नहीं था। तो उसने अपने शैली में इस आंदोलन को कुचलने की ठान ली। जिस तरह से चीन ने टैंकों तले लोकतंत्र को रौंदा था, उसे देख तो हिटलर और मुसोलिनी का शासन भी स्वर्ग लगे। चीनी टैंकों के सामने खड़े इस व्यक्ति की तस्वीर आज भी कई लोगों को रुलाती है।
आज भी इस बात पर संशय है कि वास्तव में 4 जून को प्रारंभ हुए चीन के दमनकारी अभियान में कितने लोगों की मृत्यु हुई थी। 2017 में इंडिपेंडेंट के साथ साझा किए गए एक टॉप सीक्रेट ब्रिटिश रिपोर्ट के अनुसार 10000 से भी अधिक चीनी नागरिकों का नरसंहार हुआ था। कहते हैं कि जो छात्रा प्रारम्भिक हमले में घायल हुए थे, उन्हें लाख मिन्नतें करने के बाद भी bayonet से गोद गोदकर मार दिया गया, और उनकी लाशों को जलाकर उनकी अस्थियों को गटर में बहाया गया था।
तब से अब तक 30 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन आज भी उस बर्बर कांड के बारे में कम लोग ही कुछ बोलने की हिम्मत कर पाते हैं। चीन तो उल्टा इस बर्बरता को उचित ठहराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता है। आज भी चीन ने दुनिया को इस बात पर अंधेरे में रखा हुआ है कि उस दिन वास्तव में क्या हुआ, और कितने लोग मारे गए थे।
परन्तु अब और नहीं। दुनिया के कई देश अब चीन के बर्बर शासन और उसकी हेकड़ी से त्रस्त आ चुके हैं, और तो और अब खुलेआम Tiananmen Square के नरसंहार का उल्लेख कर चीन को चुनौती देने लगे हैं।
उदाहरण के लिए चेक गणराज्य की राजधानी प्राग (Prague) में चीनी पर्यटकों अथवा राजनयिकों के स्वागत हेतु बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए गए। इन होर्डिंग्स पर चीन के इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक, Tiananmen Square के लोकतांत्रिक प्रदर्शनों को कुचलने की तस्वीरों को शामिल किया गया है, जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि चेक गणराज्य चीन के प्रति क्या भावना रखता है।
इसके अलावा अमेरिका समय समय पर चीन को चुनौती देते हुए उसके पैरों तले दबे हुए देशों के अधिकारों के लिए खुलेआम बात कर रहा है। जहां उसने चीन के विरुद्ध वैश्विक कार्रवाई को बढ़ावा दिया है, तो वहीं एक के बाद एक विधेयक से वह ताइवान, हांग कांग और तिब्बत की स्वतंत्रता को मान्यता दे चीन को यह सिद्ध करना चाहता है कि अब हर जगह उसकी नहीं चलने वाली।
चीन का टैंक मैन का प्रतिबिंब अब अमेरिका जैसे देशों के वर्तमान स्वभाव में दिखने लगा है। ये समस्त दुनिया के लिए भी एक अहम संदेश है – महामारी के खत्म होने पर चीन के विरुद्ध नरम नहीं पड़े, और उसे हर अत्याचार का हिसाब चुकाने पर विवश करे, और साथ ही साथ उसकी निरंकुश सत्ता के विनाश का मार्ग भी प्रशस्त करे।