चीन सरकारों को लुभाता है, भारत वहाँ के लोगों को; तभी सरकार बदलते ही चीन को सब देश भगा देते हैं

दो देश, दो नीति और दो नतीजे: आखिर में भारत ही जीतता है

भारत और चीन के बीच बॉर्डर विवाद बढ़ता ही जा रहा है। इसके साथ ही नेपाल की राजनीति में भी भूचाल आ चुका है और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी अब दो फाड़ होने वाली है। यानि कुल मिलाकर चीन के लिए अभी कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। नेपाल में अगर सरकार बदलती है तो यहाँ चीन के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी और नई सरकार आने के बाद नेपाल भी मालदीव और श्रीलंका की तरह चीन को छोड़ भारत के पक्ष में आ जाएगा। अब यहाँ यह सवाल उठता है कि आखिर चीन ऐसी कौन सी विदेश नीति अपनाता है जिससे किसी भी दूसरे देश में सरकार बदलते ही वह चीन के खिलाफ हो जाता है लेकिन भारत के साथ ऐसा नहीं होता? उदाहरण के लिए मालदीव की अब्दुल्ला यामीन की सरकार हो या श्रीलंका की सिरिसेना सरकार! जैसे ही ये सरकारें मालदीव और श्रीलंका से हटीं, वैसे ही भारत के साथ दोबारा इन देशों के संबंध अच्छे हो गए।

इसका जवाब बेहद ही सरल है। चीन अपनी विस्तारवादी नीति का चश्मा पहन कर सिर्फ और सिर्फ आर्थिक लाभ की फिराक में रहता है। आर्थिक लाभ लेने के लिए वह अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों को निशाना बनाता है और उन पर ऐहसान कर अपने काम निकलवाता है। वहीं भारत ने कभी जबरन विस्तार की नीति पर काम ही नहीं किया और प्रधानमंत्री मोदी के आने के बाद भारत की विदेश नीति सिर्फ राष्ट्राध्यक्षों के साथ अच्छे सम्बन्धों पर नहीं रही बल्कि उनके माध्यम से उन देशों में भारत की goodwill बनाने की रही।

दरअसल चीन ने पहले मालदीव फिर श्रीलंका और अब नेपाल के साथ इसी तरह अपने आर्थिक फायदे के लिए राष्ट्राध्यक्षों को निशाना बनाया। जब मालदीव पर तानाशाह अब्दुल्ला यामीन गयूम का शासन था, तो उसके प्रो चाइना बर्ताव के कारण मालदीव में चीन की दखलंदाज़ी बढ़ने लगी थी। अब्दुल्ला यामीन की सरकार के समय मालदीव चीन के ही एक अन्य प्रांत की तरह बर्ताव कर रहा था। पर जैसे ही अब्दुल्ला की जगह इब्राहिम मोहम्मद सोलिह ने ली, भारत और मालदीव के संबंध और प्रगाढ़ हो गए।

ठीक वैसे ही चीन ने श्रीलंका को भी अपने कर्ज जाल में फँसाने के लिए पहले महिंद्रा राजपक्षे और फिर मैत्रीपाल सिरिसेना का समर्थन किया। इनके रहने से श्रीलंका चीन के पंजों में ही जकड़ा रहा। सीरिसेना के चीन समर्थन के कारण श्रीलंका ऋणजाल में फँसता चला गया। बीजिंग ने ना सिर्फ सीरिसेना को साझेदारी के नाम पर ऋण जाल में फंसाया, अपितु वर्ष 2017 में उसके हम्बनटोटा बंदरगाह को भी अपने अधिकार में ले लिया।परंतु जैसे ही पिछले वर्ष नवंबर में सत्ता परिवर्तन हुआ और गोटाबाया राजपक्षे सत्ता में आए वैसे ही इस पड़ोसी देश के भारत के प्रति रुख में बदलाव आया।

अब नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी भी दो धड़ों में बंट चुकी है। नेपाल की राजनीति को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी की केपी ओली के नेतृत्व में बनी सरकार कभी भी गिर सकती है। कुछ दिनों पहले भी जब इन दोनों में विवाद हुआ था तब चीन की राजदूत ने हस्तक्षेप कर ओली की सरकार बचाई थी। इस सरकार के गिर जाने से चीनी राजदूत के सभी किए पर पानी फिर जाएगा। और जैसे ही सरकार बदलेगी, चीन को लेकर नीतियों में भी परिवर्तन आना तय है क्योंकि नेपाल के लोग अभी भी भारत के खिलाफ जाने का विरोध कर रहे हैं और अगली सरकार जनता के चीन विरोध रुख का खास ध्यान रखेगी। चीन कभी नेपाल के लोगों से जुड़ ही नहीं पाया क्योंकि उसका ध्यान तो नेपाल की जमीन हड़पने से लेकर उसे BRI के नाम पर कर्ज में डुबाना  और वहाँ के FDI पर नियंत्रण करना था। अपने काम निकलवाने के लिए चीन ने ओली के व्यक्तिगत फायदे के लिए सरकार बनवाई और फिर उसे गिरने से भी बचाया था। परंतु अब सब कुछ बदलने वाला है।

चीन  की सरकार अफ्रीकी देशों में भी इन देशों के राष्ट्राध्यक्षों के क्षेत्रों में विकास की परियोजनाओं के लिए मदद दे कर उन्हें अपने ऐहसान के तले दबा चुकी है। एक रिपोर्ट के अनुसार अफ्रीकी राष्ट्रपतियों को उनके सत्ता में आने के बाद उनके जन्म क्षेत्रों के विकास के लिए बीजिंग से तीन गुना अधिक मदद मिली है। आखिर क्यों? चीन ने कभी भी किसी देश के लोगों के बारे में नहीं सोचा और सिर्फ अफ्रीका के राष्ट्राध्यक्षों को लुभाकर उनसे अपने आर्थिक फायदे निकालने का ही विचार किया।

वहीं भारत ने कभी भी इस तरह की नीति पर काम नहीं किया। भारत ने हमेशा ही अपने साझेदार देशों के लोगों से जुडने पर ध्यान दिया है। पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत की विदेश नीति में भारी बदलाव देखने को मिला था और सॉफ्ट पावर का इस्तेमाल उनमें से ही एक था। अन्य देशों के लोगों के जुडने का सबसे बेहतरीन तरीका उनके भोजन, भाषा और वेष-भूषा को रेखांकित करना है और पीएम मोदी ने वही किया। चाहे उनके द्वारा इजरायल के प्रधानमंत्री को उनके चुनावी जीत पर Hebrew में शुभकामनायें देना हो या फिर चीन के राष्ट्रपति का भारत में स्वागत चीनी भाषा में ही क्यों न करना हो।

 

पीएम मोदी ने दूसरे देश के लोगों से संवाद करने के लिए ‘हाउडी मोदी’ और ब्रिटेन के वेम्बले स्टेडियम या फिर 2014 में मेडिसन स्क्वेयर जैसे प्रोग्राम किए जिसका अनुसरण अन्य देशों के राष्ट्रपति भी कर रहे हैं। पीएम मोदी जिस तरह से अन्य देशों में भी लोगों की भीड़ को भाषण से मोहित कर देते हैं वह भी किसी करिश्में से कम नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी अगर किसी देश में जाते हैं तो वहाँ बसे भारतीय समुदाय से जरूर मिलते हैं और उन्हें प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि उन देशों में प्रवासी भारतीय देश के दूत की तरह काम करते हैं और वहाँ के स्थानीय लोगों को भारत से जोड़ते हैं। इससे उन देशों में बसने वाले हर एक भारतीय के मन में गर्व उत्पन्न होता है और वह भारत का प्रचार प्रसार करता है।

देखा जाए तो पीएम मोदी अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों के माध्यम से वहाँ के लोगों में भारत की soft power बढ़ाते हैं जिससे वे भारत के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। लोकतन्त्र में सरकार बदलती रहेंगी लेकिन लोग वही रहेंगे, उनकी भावनाए भी वही रहेंगी और भारत के लिए उनके मन में वही प्यार व सम्मान रहेगा। यही फर्क है एक लोकतान्त्रिक नेता और एक कम्युनिस्ट सत्तावादी नेता में।

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