“कूटनीति नहीं, कूटने की नीति अपनाओ”, चीन के साथ पृथ्वीराज चौहान नहीं, ललितादित्य मुक्तपीड़ के तरीके से निपटो

बात नहीं, अब लात का समय है!

ललितादित्य मुक्तपीड़

सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ वाली आक्रामकता को अपनाना होगा

कभी कभी वर्तमान के लिए आवश्यक सीख हमारे इतिहास में कहीं छुपी होती है। आज भारत चीन के साथ एक बहुत बड़ी भिड़ंत के मुहाने पर खड़ा है। पूर्वी लद्दाख में चीन के पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी ने जिस तरह से भारत की संप्रभुता और अखंडता को चुनौती दी है, वो सिद्ध करती है कि किस तरह से चीन भारत के बढ़ते वैश्विक क़द से बुरी तरह भयभीत है, और वह इसे रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। अब भारत इस मुसीबत से कैसे बाहर निकलता है, ये उसके स्वभाव पर निर्भर है। लेकिन अगर इतिहास से हमें उदाहरण लेना है, तो हमें पृथ्वीराज चौहान वाला आदर्शवाद त्यागकर सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ वाली आक्रामकता को अपनाना होगा।

हम सभी इस बात से भली भांति परिचित हैं कि भारत पर इस्लामियों ने 712 ईस्वी में सर्वप्रथम आक्रमण किया था, जब अविभाजित भारत के मुल्तान क्षेत्र पर अरबी आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था। हम ये भी जानते हैं कि भारत की अविजित छवि को तब गहरा धक्का पहुंचा था, जब अफ़गानी सुल्तान महमूद गजनवी ने 1017 – 1025 के बीच कई बार आक्रमण किया था।

पर क्या कभी हमने इस बात पर ध्यान दिया कि बीच के तीन शताब्दियों में ऐसा क्या था, जिसके कारण  ‘सर्वशक्तिशाली’ होते हुए भी इस्लामी आक्रांता भारत को पराजित नहीं कर पाया था। ऐसा क्या हुआ था कि 300 से अधिक वर्षों तक किसी इस्लामी आक्रांता की भारत की ओर आँख उठाने का साहस नहीं हो पाया था? कारण थे भारत में सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़  जैसे वीर योद्धा, जो आक्रामक तरीके से हमारी मातृभूमि के शत्रुओं को धूल चटाना भली भांति जानते थे।

सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ कश्मीर के कारकोटा वंश के शासक थे, जिनकी सैन्य रणनीति अपने आप में अतुल्य थी। वे अरबी आक्रांताओं की वास्तविकता से भली भांति परिचित थे, और वे इसीलिए ‘भय बिनु होए न प्रीति’ की पद्वति में विश्वास रखते थे। इसका प्रारम्भ उन्होने किया यशोवर्मन को पराजित करके। आरसी मजूमदार के ‘Ancient India’ के अनुसार यशोवर्मन महान सम्राट हर्षवर्धन के पुष्यभूति वंश का शासक था, और उन्हे पराजित कर ललितादित्य मुक्तपीड़ ने उन्हे शांति प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया। तद्पश्चात उन्होने तिब्बतियों के कब्जे में स्थित लद्दाख और उसके पूर्व में कई क्षेत्रों को स्वतंत्र करने का बीड़ा उठाया। इसके अलावा सम्राट ललितादित्य ने एक के बाद तुर्कमेनिस्तान और बदख्शाँ के तुखार वंश, बाल्टिस्तान और तिब्बत के भूटा वंश और दार्ड वंश को युद्धों में बुरी तरह पराजित किया।

परंतु ललितादित्य मुक्तपीड़ को सबसे बड़ी चुनौती मिडिल ईस्ट से  मिली। इसी समय मुहम्मद बिन कासिम ने मुल्तान पर आक्रमण भी किया था। ऐसे में ललितादित्य ने अपनी रणनीति और कूटनीति का कुशल उपयोग करते हुए न केवल एक सशक्त सेना तैयार की, अपितु अरबियों को बुरी तरह पराजित भी किया। उन्होने इसके लिए पहले चीन की शक्तिशाली टेंग वंश से संधि की। इसके पश्चात उन्होने Transxiona [आज का उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, दक्षिणी किर्गिज़्स्तान और दक्षिण पश्चिमी कजाखिस्तान मिलाकर] पर अपना आधिपत्य जमाया। उन्होने काबुल में तुर्किस्तान पर भी कब्जा जमाया और उनका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में द्वारका और ओड़ीशा तक और पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में केन्द्रीय एशिया तक फैला हुआ था।

सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ भली भांति जानते थे कि यदि उन्हे अपनी मातृभूमि और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी है, तो उन्हे हर स्थिति में आक्रामक रहना पड़ेगा। वे केवल एक कुशल योद्धा ही नहीं थे, अपितु कश्मीर के सबसे भव्य मंदिरों में से एक, मार्तंड सूर्य मंदिर के रचयिता भी थे।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ अपने वंशजों से काफी भिन्न थे, विशेषकर पृथ्वीराज चौहान जैसे शासकों से, जो निस्संदेह वीर योद्धा थे, पर शत्रुओं को उखाड़ फेंकने के लिए आक्रामक रक्षा नीति में विश्वास नहीं रखते थे। शायद इसीलिए पृथ्वीराज चौहान तराइन के दूसरे युद्ध में पराजित हुए, और अंत में भारत पर इस्लामिक शासन का काला साया आ ही गया।

जिस तरह से आज पाकिस्तान कश्मीर के एक हिस्से पर कब्जा किए हुए हैं, और चीन ने लद्दाख के पूर्वी क्षेत्र ‘गोस्थान’ [अकसाई चिन] पर कब्जा जमाया हुआ है, और इसके बाद भी हम अमन और शांति की बात करते आए हैं, वो इसी पृथ्वीराज चौहान वाली मानसिकता का परिचायक है।

सेवानिर्वृत्त मेजर जनरल मृणाल सुमन ने इसी मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए 2014 में कहा था, “यदि हम सियाचिन से पीछे हटे, तो ये पृथ्वीराज चौहान सिंड्रोम का परिचायक होगा” भारत की शुरू से ये समस्या रही है कि वे युद्ध में तो विजयी होती है, पर बातचीत के मसले पर मात खा जाती है। अब जब चीन ने भारत के आत्मसम्मान को ललकारा है, तो पीएम मोदी को पृथ्वीराज चौहान की तरह नहीं, बल्कि सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ की तरह चीन के नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए।

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