आज कोरोना के कारण चीन अमेरिका का सबसे बड़ा सिर दर्द बना हुआ है। चीन की गुंडागर्दी के कारण विश्व का ध्यान Indo-Pacific पर केन्द्रित है। अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और ताइवान जैसे देश खुलकर सामने आये हैं और चीन से किसी भी मामले में टक्कर के लिए तैयार दिखाई दे रहे हैं। वहीं, यूरोपियन यूनियन चीन से अपनी दोस्ती निभाने के कारण आज भी एक पक्ष चुनने में असमर्थ है और EU के इसी status quo के कारण पूरा का पूरा यूरोप अपनी प्रासंगिकता खो रहा है।
वर्ष 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ती के कुछ वर्षों बाद पूरा विश्व दो धड़ो में बंट गया था। एक धड़ा अमेरिका के साथ था तो एक धड़ा सोवियत यूनियन के साथ। इन दोनों महाशक्तियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई 1990 तक चली और सोवियत यूनियन के टूटने तक लगातार चलती रही थी। इन दोनों वैश्विक पावर के बीच चल रहे शीत युद्ध में अगर किसी को सबसे अधिक फायदा और नुकसान हुआ तो वो यूरोप का हुआ। दोनों महाशक्तियों ने अपनी अपनी पैठ जमाने के लिए यूरोप के कई देशों में भारी मात्रा में निवेश किया। दशकों चले इस शीत युद्ध में पूरे यूरोप की प्रासंगिकता बनी रही थी। परंतु 21 वीं सदी में यूरोप कहीं नजर नहीं आ रहा है और अपनी प्रासंगिकता को अपनी निष्क्रियता और अनिर्णयाक नेतृत्व के कारण खो रहा है।
पिछली सदी में अमेरिका, यूरोप और सोवियत का उदाहरण देखें तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि दो महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध में सबसे अधिक फायदा उस क्षेत्र को होता है जहां दोनों महाशक्तियों का ध्यान केन्द्रित होता है। विश्व युद्ध के तुरंत बाद ही अमेरिका ने यूरोप में अपनी पकड़ बनाने के लिए Marshall Plan के तहत यूरोप को मदद पहुंचाने की योजना बनाई थी। इस योजना के तहत अमेरिका ने उस दौरान 21 बिलियन अमेरिकी डॉलर हस्तांतरित किया था जिसकी आज के समय में कीमत 129 बिलियन अमेरिकी डॉलर है। कहने को तो यह मदद युद्ध से उबरने के लिए थी लेकिन वास्तविक कारण इन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों के दबदबे को कम करना था जिससे वे सोवियत यूनियन के पाले में न जा सके।
इसके जवाब में USSR ने Molotov Plan की शुरुआत की जिससे वो पूर्वी यूरोप में उन देशों को सहायता प्रदान कर सके जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से सोवियत संघ से जुड़े थे। इन दोनों ही महाशक्तियों की आर्थिक मदद से यूरोप में विकास की गति कई गुना बढ़ गयी और 1990 आते आते पूरा यूरोप एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित हो चुका था। एक बात ध्यान देने वाली थी कि वो ये कि तब पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देश अमेरिका के साथ थे तो पूर्वी यूरोप के अधिकतर देश USSR के साथ। यानि सभी देश किसी न किसी महाशक्ति के साथ थे।
आज 21वीं सदी में USSR नहीं, बल्कि चीन सबसे बड़ा सिर दर्द है और चीन से निपटने के लिए पूरा Indo-Pacific क्षेत्र विश्व के केंद्र में है यानि पिछली सदी में जो भूमिका यूरोप निभा रहा था, आज वही भूमिका Indo-Pacific क्षेत्र के देश जैसे भारत, ऑस्ट्रेलिया तथा South-East एशिया के देश निभा रहे हैं। यही कारण है कि कोरोना के बाद से ही इन क्षेत्र की प्रासंगिकता बढ़ चुकी है। एक तरफ चीन अपना दबदबा बढ़ाने के लिए कई देशों को डराने-धमकाने से लेकर उन्हें कर्ज के जाल में डूबा कर अपने पक्ष में कर रहा है। वहीं अमेरिका भी भारत और ऑस्ट्रेलिया की मदद कर अपना दबदबा कम नहीं होने देना चाहता है, इसलिए और अधिक से अधिक निवेश कर रहा है। Indo-Pacific क्षेत्र की प्रासंगिकता बढ़ने से इस क्षेत्र के सभी देशों को पिछली सदी में यूरोप की भांति ही फायदा होगा जिससे विकास की गति कई गुना बढ़ सकती है। अमेरिका चीन को टक्कर देने के लिए अमेरिका और भारत की खुल कर बड़ाई कर रहा है। पिछले दिनों ही अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा था कि चीन की ‘आक्रामक कार्रवाई’ का जवाब भारत ने सर्वश्रेष्ठ तरीके से दिया है। यही नहीं चीन को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अमेरिका Quad संगठन को और भी व्यापक बना सकता है, जैसे पिछली सदी में अमेरिका ने USSR को रोकने के लिए NATO की स्थापना की थी। यानि कुल मिला कर आज विश्व के केंद्र में Indo-Pacific क्षेत्र हैं और इसमें यूरोप कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है।
आज सभी की नजरें यूरोप से हट कर भारत और ऑस्ट्रेलिया की ओर हो चुकी हैं। आज भी एक संगठन के तौर पर EU ने किसी पक्ष का चुनाव नहीं किया है और वह दोनों नावों में पैर रख कर सवारी करना चाह रहा है। एक तरफ EU चीन से व्यापार बचाने के लिए उसके साथ खड़ा दिखाई दे रहा है, तो वहीं अमेरिका से दोस्ती भी बचाना चाह रहा है। यही status-quo यूरोपियन यूनियन की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। अमेरिका ने भी अपना ध्यान अब यूरोप से Indo-Pacific की ओर कर लिया है। जब USSR से खतरा था तो यूरोप ने अमेरिका का साथ चुना था और उसके कई देश NATO जैसे संगठन में शामिल हुए थे। आज चीन से खतरा है तो इसमें यूरोप कोई भी पक्ष नहीं चुन पाया है, जबकि भारत और ऑस्ट्रेलिया ने चीन को मुंहतोड़ जवाब दे कर अपना पक्ष चुन लिया है जिससे वे विश्व के केंद्र में आ चुके हैं। यह यूरोपियन यूनियन की अक्षमता ही है जिसने इस बेहतरीन मौके पर भी यूरोप को अप्रासंगिक बना दिया है।