जानिए कैसे एक नागा ने तवांग को भारत में मिलाया और नॉर्थ ईस्ट को भारत का अभिन्न हिस्सा बना दिया

जब चीन पर भारी पड़ा था भारत का एक नागा!

तवांग

(PC: The Better India)

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उन नायकों को भी इतिहास भुला देता है, जिन्होंने अपने परिश्रम से उस क्षेत्र की स्वतन्त्रता को कायम रखने में एक अभूतपूर्व योगदान दिया हो। ऐसे कई नायक हैं, जिन्होंने हमारे देश की अखंडता को कायम रखने में भरपूर सहयोग किया, पर हमने न जाने क्यों उन्हें भुला दिया। ऐसे ही एक नायक थे मेजर रलेंगनाओ ‘बॉब’ खथिंग, जिन्होंने न केवल तवांग को भारत में मिलाया, अपितु पूर्वोत्तर को भारत से जोड़ने में भी सहायता की।

आज जब भारत हर मोर्चे पर चीन को मुंहतोड़ जवाब दे रहा है, तो कहीं न कहीं इस बदले हुए स्वभाव में इन नायकों का योगदान याद रखना बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण है। मेजर रलेंगनाओ खथिंग उर्फ ‘बॉब’ ऐसे ही एक नायक थे। तंगखुल नागा जनजाति से संबंध रखने वाले मेजर खथिंग का जन्म 8 फरवरी 1912 को मणिपुर के उखरुल क्षेत्र में हुआ था।

इनके फौज में भर्ती होने का किस्सा भी काफी रोचक है। जब विश्व युद्ध द्वितीय के कारण अग्रिम भर्ती का दौर जारी था, तो उस समय के भर्ती होने के लिए नियम काफी सख्त थे। भर्ती होने की मिनिमम हाइट 5 फीट 4 इंच थी, और गुरखाओं के लिए कद में केवल 2 इंच की छूट मिली थी। परंतु एक समझदार ब्रिटिश अफसर और एक अनोखे हेयरस्टाइल की सहायता से खथिंग जल्द ही ब्रिटिश फौज में भर्ती हो गए। वे न केवल पहले ऐसे आदिवासी थे, जो अपने क्षेत्र से ग्रेजुएट हुए थे, परंतु पहले ऐसे आदिवासी भी थे, जिन्हें राजा का कमीशन  [King’s Commission] भी मिला था। युद्ध में अदम्य साहस के लिए उन्हे मिलिट्री क्रॉस से भी नवाजा गया, जो  भारतीय परिप्रेक्ष्य में वीर चक्र के बराबर माना जाता है।

परंतु मेजर खथिंग इसलिए इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे। उन्हें असल ख्याति तो स्वतंत्र भारत में मिलने वाली थी। 1950 में जब भारत आधिकारिक तौर पर एक लोकतान्त्रिक गणराज्य बना था, तब आर्मी से सेवानिर्वृत्ति हो चुके मेजर खथिंग को असम राइफल्स से जुडने का सुझाव दिया गया, जहां वे असिस्टेंट कमांडेंट के पद पर कुछ समय तक तैनात रहे थे। जनवरी 1951 में हिम्मत सिंह जी बॉर्डर रक्षा कमेटी एवं असम के तत्कालीन राज्यपाल जयरामदास दौलतराम के सुझाव पर मेजर खथिंग को तवांग क्षेत्र की कमान संभालने का आदेश दिया गया था। आर्मी कैप्टन हेम बहादुर लिम्बू, 5 असम राइफल्स के 200 सैनिक और 600 पोर्टर के साथ वे तवांग क्षेत्र के लिए निकल पड़े।

1951 में जब मेजर खथिंग के नेतृत्व में उनकी टुकड़ी तवांग पहुंची, तो वहीं की स्थिति काफी चिंताजनक थी। स्थानीय लोगों से पता चला कि बॉर्डर पार से तिब्बती प्रशासन [चीनी सेना] आए दिन उनको सताता था और उनसे काफी मोटी रकम भी वसूलता था। उनसे भिड़ने के लिए वहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो चीनियों को उन्हीं की भाषा में जवाब दे सके। लेकिन मेजर खथिंग ऐसे नहीं थे, क्योंकि वे न केवल उस भूमि से भली भांति परिचित थे, अपितु चीनियों के सामने डटकर मोर्चा संभालने में भी सक्षम थे।

परंतु चीनियों को आखिर किस बात के लिए तवांग क्षेत्र से इतना मोह था, और आज भी क्यों वह तवांग समेत पूरे अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा जमाना चाहता हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि पूर्वोत्तर में तवांग एक ऐसा क्षेत्र है, जो खनिज पदार्थों के मामले में काफी सम्पन्न है, और जो किसी भी देश के लिए किसी जैकपॉट से कम नहीं है। ऐसे में चीन इस क्षेत्र पर कब्जा जमा तवांग से जमकर खनिज पदार्थ लूटने की मंशा रखता था।

लेकिन मेजर खथिंग के मोर्चा संभालते ही मानो चीन की सभी मंशाओं पर पानी फिर गया, और बिना खून का एक कतरा बहाये उन्होने तवांग क्षेत्र के स्थानीय समुदाय का हृदय जीत लिया। ये सभी गतिविधियां तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू की अनुमति के बिना हुई, जिसके लिए वे काफी क्रोधित भी हुए। परंतु कश्मीर के अनुभव से सीखते हुए मृत्युशैय्या पर गृह मंत्री सरदार पटेल ने जयराम दास दौलतराम को कहा था कि चाहे कुछ भी हो जाये, तवांग में कश्मीर वाली गलती दोहराई ना जाये।

आज यदि तवांग समेत पूरा अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है, तो वो इसलिए है क्योंकि मेजर खथिंग जैसे वीर योद्धाओं ने वहाँ मोर्चा संभाला हुआ था। उन्हीं के कारण आज पूर्वोत्तर क्षेत्र भारत का एक अभिन्न अंग है, परंतु ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज भी अधिकांश भारतीय इनके पराक्रम से अंजान है।

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