जर्मनी ने अमेरिका के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है, जिसमें डोनाल्ड ट्रम्प ने G-7 में रूस को शामिल करने की बात कही थी। जर्मनी के विदेश मंत्री हेइको मास (Heiko Maas) ने एक इंटरव्यू में कहा कि रूस को G-7 में शामिल करने की कोई गुंजाइश नहीं है।
दरअसल, पिछले महीने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ने G-7 के विस्तार की बात करते हुए कहा था कि इसमें रूस को फिर से शामिल किया जाना चाहिए। इसपर अब जर्मनी के विदेश मंत्री ने कहा कि रूस को G-7 में शामिल करने की कोई संभावना ही नहीं है, जब तक क्रीमिया और पूर्वी यूक्रेन संघर्ष को सुलझाने में कोई सार्थक प्रगति नहीं होती। उन्होंने आगे कहा, ‘रूस यूक्रेन संघर्ष का शांतिपूर्ण समाधान निकालकर G-7 समूह का हिस्सा बन सकता है, लेकिन उसे इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे’।
बता दें कि साल 1998 में G7 में रूस शामिल हुआ था और तब यह समूह जी-7 से जी-8 बन गया था। परन्तु साल 2014 में यूक्रेन से क्रीमिया हड़प लेने के बाद रूस को समूह से निलंबित कर दिया गया था। अब जब ट्रम्प फिर से रूस को इस समूह में शामिल करना चाहते हैं तो जर्मनी इसके खिलाफ है।
जर्मनी अब खुलकर रूस के खिलाफ आ गया है अभी पिछले महीने ही जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने कहा था कि यूरोपीय संघ के नेताओं ने रूस पर क्रीमिया को लगाए गए प्रतिबंधों को और 6 महीने और बढ़ाने का फैसला किया था। यूरोपीय संघ के नेताओं के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के बाद जर्मन चांसलर ने कहा था कि पिछले साल अभियोजन पक्ष द्वारा रूस पर एक जॉर्जियाई नागरिक की हत्या का आदेश देने के आरोप के बाद बर्लिन ने किसी भी तरह प्रतिक्रिया देने का अधिकार सुरक्षित रखा।
वास्तव में वर्ष 2014 में यूक्रेन से क्रीमिया हड़प लेने वाले मामले में रूस के खिलाफ कड़े प्रतिबन्ध लगाकर मर्केल ने अपने पद को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। भले ही क्रीमिया की जनता रूस के पक्ष में हो परन्तु रूस पर कड़े प्रतिबन्ध लगाकर जर्मनी मॉस्को की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका देना चाहता है।
जर्मनी ने रूस को G7 में रूस को शामिल न करने के पीछे जो भी कारण दिए हो परन्तु एक सच ये भी है कि जर्मनी ने रूस और अमेरिका के बीच चले कोल्ड वॉर का सबसे अधिक लाभ उठाया है। वहीं नाटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (NATO) में भी अपनी प्रासंगिकता को जर्मनी बनाये रखना चाहता है, जोकि तभी संभव है जब रूस को पश्चिम देशों के प्रतिद्वंदी के रूप में देखा जाए।
एक तरफ जर्मनी रूस के खिलाफ अमेरिका के रुख की बरकरार रखना चाहती हैं और दूसरी तरफ रूस के साथ नॉर्ड स्ट्रीम गैस पाइपलाइन जैसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट और काम भी कर रहा है। बाल्टिक सागर के नीचे डाली गई ‘नॉर्ड स्ट्रीम गैस पाइपलाइन’ रूस और जर्मनी को जोड़ेगी और इससे यूरोपीय देशों को गैस की सप्लाई सुनिश्चित की जाएगी। इस प्रोजेक्ट से यूरोप को भविष्य में गैस पाइपलाइन से सस्ती, साफ ऊर्जा की जरुरतों को पूरा करने में काफी मदद मिलेगी। परंतु इस गैस पाइपलाइन से रूस को भू राजनैतिक लाभ मिलेगा। वर्तमान में 30 प्रतिशत हिस्से के साथ रूस पश्चिम यूरोप का सबसे बड़ा गैस सप्लायर है। ऐसे में इस पाइपलाइन प्रोजेक्ट के कारण पश्चिमी देशों की निर्भरता गैस के मामले में रूस पर और बढ़ जाएगी। इस पाइपलाइन के चलते यूरोप रूस पर बहुत ज्यादा निर्भर हो जाएगा और बदले में रूस जर्मनी को ब्लैकमेल कर सकता है। यही कारण है कि इस पाइपलाइन प्रोजेक्ट पर यूरोपीय देश बंट गए हैं।
दरअसल, मर्केल के इस महत्वकांक्षी पाइपलाइन प्रोजेक्ट के कारण रूस यूक्रेन और पोलैंड से होकर भेजी जाने वाली गैस की मात्रा घटा सकता है, जिससे यूक्रेन और पोलैंड को मिलने वाली ट्रांजिट फीस कम हो जाएगी। इस ट्रांजिट फीस से यूक्रेन को 2 अरब यूरो की कमाई होती है। स्पष्ट है जर्मनी ने इस प्रोजेक्ट के लिए यूक्रेन के हितों को दरकिनार कर दिया है।
जर्मनी अमेरिका और रूस दोनों ही देशों के साथ अपने संबंधों को बनाये रखना चाहता है, परन्तु मर्केल दूसरी तरफ ये भी चाहती हैं कि ये दोनों देश एक-दूसरे से लड़ते रहे, और इसके पीछे का एक और उद्देश्य दुनिया का ध्यान अपने सबसे बड़े व्यापरिक साझेदार चीन से हटाना भी है। यदि अमेरिका और रूस साथ आते हैं तो चीन को दुनिया से अलग-थलग करना और आसान हो जायेगा। इसके साथ ही चीन को हर मोर्चे पर मात देना और उसकी गुंडागर्दी के लिए अमेरिका उसे सबक सीखना चाहता है। ऐसे में दोनों देशों के बीच जारी तनाव से जर्मनी को फायदा होगा और अमेरिका का ध्यान चीन पर कम होगा। कुल मिलाकर अपने फायदे के लिए जर्मनी रूस और अमेरिका के बीच रणनीति के तहत साथ नहीं आने देना चाहता है, ताकि वो दोनों के बीच के तकरार से न केवल लाभ उठाये बल्कि अपने मित्र ‘चीन’ को भी अमेरिका के Action से बचा सके।