अरब देश प्रगतिशील सोच को अपना रहे हैं, उधर एर्दोगन “विकासवादी” तुर्की को सदियों पीछे धकेलने में लगे हैं

पश्चिमी एशिया में आजकल उल्टी गंगा बह रही है!

मुस्लिम

दुनिया की राजनीति में कोरोना के कारण ऐसे बदलाव आ रहे हैं जो संभवतः सामान्य दिनों में नहीं होते। हालांकि, यह कहना गलत होगा कि कोरोना ने ही सारे बदलावों को जन्म दिया है। आज दुनिया में जो भी बदलाव हो रहे हैं उनकी एक पृष्ठभूमि है और कोरोना ने बस इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है। इसका सबसे अच्छा उदहारण भारत और चीन का रिश्ता है जिसमें अलगाव पहले से ही थे बस कोरोना ने उसे स्पष्ट कर दिया है।

इसी क्रम में मुस्लिम जगत में भी कई ऐसे सुधार हो रहे हैं जो देखने में तो वर्तमान समय की मांग हैं, लेकिन उनकी जड़ें बहुत गहरी है। ताजा रिपोर्टस के मुताबिक UAE ने  कोरोना से बर्बाद अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए शराब बेचने और रखने के नियमों में ढील दी है। बता दें की मुस्लिम मान्यताओं के अनुसार शराब रखना और उसका सेवन करना दोनों वर्जित है और प० एशिया में इस नियम का सख्ती से पालन करते रहे हैं।

परंतु कोरोना के कारण बदहाल हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए UAE ने यह बदलाव किया है। वास्तव में ये देश जिसकी अर्थव्यवस्था का आधार तेल निर्यात ही था अब अपने आर्थिक विकास के लिए अन्य क्षेत्रों में भी हाथ आजमाना रहा है। यही नहीं, UAE और भारत के बीच, भारत में बड़ी मात्रा में निवेश को लेकर बात चल रही है। यह निवेश पेट्रोलियम के साथ प्राकृतिक गैस, नागरिक उड्डयन, फूड पार्क, शिपिंग, रिन्यूएबल एनर्जी आदि  कई क्षेत्रों में होगा जो यह बताता है की UAE अपने व्यापारिक विकल्पों को बढ़ा रहा है।

यह केवल UAE की कहानी नहीं है सऊदी अरब ने भी कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ जाते हुए यही सन्देश दिया है कि वह बदलते समय के अनुरूप अपने स्वभाव में बदलाव ला रहा है। सऊदी का कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से टकराव इतना बढ़ गया है कि सऊदी दौरे पर पहुंचे जनरल बाजवा को वहां के क्राउन प्रिंस से मिलना तक नसीब नहीं हुआ। इसके विपरीत सऊदी ने 2030 का अपना जो विज़न दिया है, जिसमें उनका उद्देश्य पेट्रोलियम सेक्टर पर अपनी अर्थव्यवस्था की निर्भरता काम करना है, उसमें भारत की प्रमुख भूमिका होगी।

जहां एक और ये देश अपने आपको आधुनिकता के रास्ते पर ला रहे हैं वहीं दूसरी तरफ तुर्की है, जो खुद को कट्टरपंथी इस्लाम की और धकेल रहा है। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन सीधे तौर पर इस कार्य में सक्रीय हैं।  उनका पाकिस्तना प्रेम हो या भारत में कट्टरपंथी इस्लाम को बढ़ावा देने की साजिश, एर्दोगान ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ते जो उन्हें परम्परावादी इस्लाम के मसीहा और रक्षक के रूप में पेश करे।

यही कारण रहा है कि मध्य एशिया में दो खेमे बन गए हैं। एक जो समय के अनुरूप अपने स्वभाव में बदलाव ला रहा है, दूसरा जो आज भी सातवीं शताब्दी में जी रहा है। टकराव इतना बढ़ चुका है कि सऊदी के पाठ्यक्रम में तुर्की के खलीफा के शासन को आक्रांताओं का शासन और उस काल को अरब जगत का अंधकारयुग बताया गया है। इतना ही नहीं वहां के नाटकों में भी ऐसा ही चित्रण हो रहा है, यह बताता है की मुस्लिम जगत की दो शक्तियां आपस में कितना बटी हुई है।

वास्तव में अरब जगत में जो बदलाव आया है वह समय की मांग है। जहां आर्थिक सुधार कोरोना के कारण जरुरी थे वहीं सामाजिक सुधार होना सत्ता कायम रखने के लिए जरुरी हो गया हैं। मुस्लिम जगत में अरब स्प्रिंग नाम का लोकतंत्र समर्थक आंदोलन शुरू हुआ था, इसके बाद जनता के दबाव में वहां सामाजिक सुधार लागू होने ही थे। सिर्फ घरेलू दबाव ही नहीं इन देशों के लिए अपनी आर्थिक शक्तियों को मजबूत करने, निवेश बढ़ाने और अपने व्यापारिक सम्बन्ध सुधारने के लिए भी यह आवश्यक था।

वैश्विक स्तर पर अपनी छवि सुधारने के लिए ही सऊदी ने नए नियम भी बनाए, जैसे नाबालिकों को मौत की सजा नहीं होगी, महिला सशक्तिकरण की दिशा में बदलाव। सऊदी पर इन सुधारों को लागू करने का दबाव तो था ही साथ ही कोरोना ने उसे ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया।

आज किसी जमाने में प्रगतिवादी और धर्मनिरपेक्ष रहे तुर्की की राजनीति में अतिवादी इस्लामिक ताकतों का प्रभाव बढ़ रहा है और उसका असर पूरे क्षेत्र की राजनीति पर पड़ेगा। अब मुस्लिम जगत में एक ओर तुर्की है जो लगातार ऐसी राजनीति को बढ़ावा दे रहा है जो केवल टकराव और संघर्ष को जन्म देगी। वहीं दूसरी ओर सऊदी और UAE हैं जिनकी कोशिश है कि वे समय के साथ अपने व्यवहार में परिवर्तन लाए।

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