BRICS यानी ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संगठन।इसकी स्थापना 2006 में हुई थी। ब्रिक्स का विचार सर्वप्रथम अर्थशास्त्री Jim O’Neill द्वारा सुझाया गया था। इसका उद्देश्य था कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को साथ लाया जा सके जिससे 21वीं सदी में इन सभी शक्तियों को एक मजबूत आवाज मिले।
वास्तव में इसका उद्देश्य था अमेरिका के प्रभाव को रोकना और ग्लोबल ऑर्डर को पश्चिम के हाथों से मुक्त करवाना। यह विचार Jim O’Neill द्वारा साल 2001 में दिया गया था। तब इसमें दक्षिण अफ्रीका शामिल नहीं था। अपनी आर्थिक प्रभुता के कारण स्वाभाविक रूप से चीन इसके केंद्र में था। चीन का उद्देश्य इसे एक बड़े अमेरिका विरोधी संगठन के रूप में उभारना था जबकि अन्य दो महत्वूर्ण देश भारत और रूस की सोच थी कि इसका इस्तेमाल करते हुए बहुपक्षीय वैश्विक व्यवस्था का निर्माण किया जाए। ब्राजील अपने आर्थिक हितों के चलते इससे जुड़ा था और यही कहानी दक्षिण अफ्रीका की भी थी जिसे साल 2010 में इसका हिस्सा बनाया गया। महत्वपूर्ण यह है कि इसके सृजन के वक्त रूस को छोड़कर बाकि सभी देश क्षेत्रीय शक्तियां ही थीं।
यह वह समय था जब सभी के विरोध के बाद भी अमेरिका ने मनमाने ढंग से इराक पर हमला किया था और उसकी नीति में दुनिया की पुलिसिंग करने वाली आक्रामकता आ गई थी। ऐसे में रूस वैश्विक व्यवस्था में अपने लगातार घट रहे कद के कारण ब्रिक्स हिस्सा बना। लेकिन भारत इस योजना में क्यों आया और क्या वास्तव में हमें इस व्यवस्था में कोई लाभ मिला यह चर्चा का विषय है।
भारत का इस योजना से जुड़ना, वैदेशिक नीति से अधिक घरेलू राजनीति से प्रभावित था। 2005 में भारत और अमेरिका के बीच एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ। यह न्यूक्लियर एनर्जी से सम्बंधित समझौता था। इस समझौते के तहत भारत ने अपने आणविक शक्ति को सिविल और मिलिट्री फैसिलिटी से अलग करने और सिविल फैसिलिटी को International Atomic Energy Agency की निगरानी में रखने का फैसला किया। यह एक अच्छी पहल थी क्योंकि, कुछ ही साल पहले 1999 में अमेरिका के तात्कालिक राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा भारत पर परमाणु परीक्षण करने के लिए आर्थिक प्रतिबन्ध लगाया गया था। ऐसे में इस समझौते ने बताया था कि, भले ही किन्हीं कारणों से यह प्रतिबन्ध लगाया गया हो लेकिन अमेरिका के लिए भारत एक महत्वपूर्ण साझीदार है और एक जिम्मेदार एटॉमिक शक्ति भी।
लेकिन भारत सरकार की विदेश नीति की यह सफलता भारतीय आतंरिक राजनीति में सराही नहीं गई, उलटे भारत में वामपंथी रुझान रखने वाले संगठनों ने इसका खुलकर विरोध किया। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी इस समझौते का जबरदस्त विरोध हुआ था। हालाँकि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रयासों के कारण यह समझौता हो गया।
इस समझौते के बाद कांग्रेस पर अमेरिका समर्थक होने का आरोप न लग जाए इसके लिए भारत ने ब्रिक्स का दमन थाम लिया था। यह कोई रणनीतिक समझदारी नहीं थी क्योंकि भारत भी जानता था कि जब तक चीन और भारत के बीच सीमा विवाद है तब तक यह संगठन कभी एक आवाज़ में बात नहीं कर पाएगा। वैसे भी तब भारत को आवश्यकता थी कि वह अमेरिका के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ाए न कि चीन के साथ। यही कारण रहा है कि अमेरिका समर्थक QUAD भी लम्बे समय तक भारत की सुस्त चाल को लेकर चिंतित था। वास्तव में उस समय भारत को जो नीति अपनानी चाहिए थी वह उसपर कायदे से अमल अब हो रहा है।
इतना ही नहीं ब्रिक्स को लेकर मचे हल्ले के पीछे एक बहुत बड़ा कारण कांग्रेस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच नजदीकियां भी रही हैं। ब्रिक्स भारत की आशाओं को पूरा करने में किस कदर असफल रहा है यह इसी से पता चलता है कि 2008 में हुए मुंबई हमले के बाद भी भारत ब्रिक्स के मंच से पाकिस्तान की आलोचना करवाना तो दूर, आतंकवाद को बातचीत का मुद्दा तक नहीं बना पाया था। अंततः प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बने दबाव के चलते ब्रिक्स ने 2016 के गोवा समिट में आतंकवाद पर एक संयुक्त वक्तव्य दिया था।
आज के हालत में ब्रिक्स पूरी तरह से असंगत हो गया है। आज न तो अमेरिका ग्लोबल पुलिसिंग कर रहा है और न ही ब्रिक्स की तीन प्रमुख शक्तियों में आपसी समझौता है। ट्रंप के शासन में अमेरिका ने खुद को अफगानिस्तान और सीरिया से निकाल लिया है। ट्रंप के शासन में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ है कि अमेरिका ने अपनी पारम्परिक रूस विरोध की नीति से हटते हुए उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। वहीं रूस के चीन के साथ भी संबंध अच्छे नहीं हैं। केवल चीन पर आर्थिक निर्भरता के कारण रूस उसके विरुद्ध खुलकर नहीं आ रहा। वहीं भारत की बात की जाए तो, अब निकट भविष्य में भारत और चीन के सम्बन्ध अछे होंगे, इसकी गुंजाईश न के बराबर है। ऐसे में ब्रिक्स का अंत करके या इससे दूरी बनाकर भारत को एक यथार्थवादी और सूझबूझ भरा कदम उठाना चाहिए।