एर्दोगन इस्लामिस्ट नहीं हैं, लेकिन तुर्की की बदहाल होती अर्थव्यवस्था ने उन्हें बनने पर मजबूर कर दिया है

तुर्की की बर्बाद होती अर्थव्यवस्था के रुझान आने लगे हैं

एर्दोगन

GDP के मामले में दुनिया की 19वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तुर्की के आर्थिक हालत आजकल बेहद खस्ता हैं। राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन की लचर नीतियों के कारण इसी वर्ष अगस्त तक तुर्की की मुद्रा लीरा की कीमत में अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले 19 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिल चुकी है, जो अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है। देश में महंगाई बढ़ गयी है और बेरोजगारी रिकॉर्ड 12 प्रतिशत तक जा पहुंची है। इसी बीच इम्पोर्ट बढ़ने और GDP घटने से तुर्की का विदेशी मुद्रा भंडार लगातार कम होता जा रहा है।

जब वर्ष 2019 में तुर्की की अर्थव्यवस्था में गिरावट देखने को मिली थी, तो उसके बाद क्षेत्रीय चुनावों में राष्ट्रपति एर्दोगन की पार्टी को मुख्य शहरों जैसे इस्तांबुल और राजधानी अंकारा में हार का सामना करना पड़ा था। ऐसे में वर्ष 2020 में जनता का ध्यान बेहाल अर्थव्यवस्था से भटकाने के लिए एर्दोगन ने लोगों में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ाने का रास्ता अपनाया है और उसके लिए उन्होंने सीरिया, लीबिया और भू-मध्य सागर में आक्रामक रुख अपनाया हुआ है।

इस साल कोरोना के बाद से ही तुर्की के सरकारी बैंक ने मंदी से बचने के लिए कई उपाय किए थे। उदाहरण के लिए बाज़ार में मांग बढ़ाने के लिए बैंकों ने सस्ते दरों पर कर्ज़ देना शुरू किया। मई में ब्याज दर को 12 प्रतिशत से घटाकर 8.25 प्रतिशत कर दिया गया था। इसके बाद पिछले तीन महीनों के दौरान तुर्की के consumer debt में 40 प्रतिशत का उछाल देखने को मिला। ज़्यादा कर्ज़ दिये जाने की वजह से मार्केट में मांग बढ़ गयी, जिसके कारण महंगाई बढ़ गयी। जुलाई में तुर्की में महंगाई दर लगभग 12 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी। इस वर्ष लीरा की गिरती कीमतों को संभालने के लिए देश का केंद्रीय बैंक 65 बिलियन डॉलर खर्च कर चुका है, लेकिन बढ़े हुए इम्पोर्ट्स और कम हुई GDP लीरा के दामों में कोई सुधार नहीं आने दे रही है। इसके अलावा कम होते विदेशी मुद्रा भंडार से तुर्की की आर्थिक हालत और ज़्यादा खराब हो गयी है।

इन सब से ध्यान भटकाने के लिए ही शायद तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन देश को लगातार विवादों की आग में झोंक रहे हैं, ताकि देश में राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा दिया जा सके। तुर्की ने पिछले दो से तीन महीनों के दौरान लीबिया, सीरिया और भूमध्य सागर में बेहद आक्रामक रुख अपनाया हुआ है। इसके अलावा देश में हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में बदलने का फैसला भी उनकी इसी सोच से जोड़कर देखा जा सकता है। वे अर्थव्यवस्था से जुड़े सवालों से दूर भागना चाहते हैं, जिसके कारण उन्होंने ऐसा कदम उठाने का फैसला लिया है।

तुर्की पिछले कुछ समय में यूरोप के कुछ देशों और रूस के खिलाफ मोर्चा खोल चुका है। लीबिया में Turkey के आक्रमण के बाद उसे फ्रांस, जर्मनी और इटली जैसे यूरोपीय देश अब प्रतिबंध की धमकी दे रहे हैं। वहीं हाल ही में तुर्की ने अज़रबैजान और अर्मेनिया के बीच विवाद में टांग अड़ाकर रूस को हस्तक्षेप के लिए निमंत्रण दे दिया है।

चीन की तरह ही तुर्की भी विस्तारवादी नीति का पालन करने में गर्व महसूस करता है। तुर्की का ग्रीस और साइप्रस जैसे देशों के साथ बॉर्डर विवाद चल रहा है। ग्रीस और तुर्की का बॉर्डर Evros नदी के प्रवाह से तय होता है। ऐसे में कोई निर्धारित बॉर्डर ना होने के कारण दोनों देशों के बीच विवाद चलता रहता है। तुर्की का विस्तारवाद हमें सीरिया में भी देखने को मिल चुका है। पिछले वर्षों में तुर्की ने सीरिया के इद्लिब शहर पर कब्जा करने की इच्छा से सीरिया में आक्रमण करना शुरू कर दिया था, जिसके बाद रूस को हस्तक्षेप करना पड़ा था। रूस के हस्तक्षेप के बाद तुर्की को अपना विचार बदलना पड़ा।

ओटोमन साम्राज्य को पुनर्जीवित करने के सपने देख रहे एर्दोगन पहले ही हागिया सोफिया मुद्दे पर विश्व के निशाने पर आ चुके हैं। दरअसल, हाल ही में दुनियाभर में प्रसिद्ध इस्तांबुल की हागिया सोफिया संग्रहालय को तुर्की की अदालत ने फिर से मस्जिद में तब्दील करने का फैसला सुनाया था। तुर्की में छठी सदी में इसे गिरजाघर के रूप में बनाया गया था। कोर्ट के फैसले के बाद राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोगन हागिया सोफिया को मस्जिद के रूप में खोलने की घोषणा कर चुके हैं जिसके कारण वे दुनियाभर के इसाइयों के निशाने पर आ चुके हैं। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन द्वारा अपनाया हुआ रास्ता कुछ समय के लिए तो ज़रूर उनकी राजनीति को सहारा दे सकता है, लेकिन यह उनके देश के हित में तो कतई नहीं है। ज़ाहिर है कि, तुर्की के राष्ट्रपति ने अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अब अपने देश को दांव पर लगा दिया है।

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