चीन अपनी विस्तारवादी नीति के तहत अब दुनिया के दोनों छोरों पर भी अपना दावा ठोकने की पूरी तैयारी कर रहा है। चीन की हरकतों से साफ है कि, उसकी निगाहें उत्तर में Arctic और दक्षिण में Antarctica पर टिकी हुई हैं। चीन का इन दोनों में से किसी भी क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन उसके मंसूबे किसी कानून, किसी सीमा या किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि को नज़रंदाज़ करने से कभी नहीं हिचकते।
Arctic में अपने दावों की वजह से चीन पहले ही रूस के साथ पंगा मोल ले चुका है। Arctic में बर्फ पिंघल रही है और इसके साथ ही इस क्षेत्र पर विवाद भी बढ़ता ही जा रहा है। अब सुदूर दक्षिण में स्थित Antarctica में भी यही हाल देखने को मिल रहा है। सात देशों ने अभी इस द्वीप को अपने-अपने दावों के मुताबिक बांटा हुआ है। ऑस्ट्रेलिया इस द्वीप के 42 प्रतिशत भू-भाग पर अपना दावा रखता है, लेकिन अब इस द्वीप में चीनी गतिविधियां बढ़ती ही जा रही हैं।
उत्तर में Arctic हो या फिर दक्षिण में Antarctica, दोनों जगहों पर प्राकृतिक संसाधन भरपूर मात्रा में हैं, जिनपर चीन की नज़र है। इसके अलावा Arctic में चीन अपने नए trade route को खोजने की भी कोशिश कर रहा है, ताकि उसकी मलक्का स्ट्रेट की समस्या हल हो सके। Arctic पर अपना दावा मजबूत करने के लिए, चीन अपने आप को एक “Near-Arctic state” कहता है, जबकि Arctic से उसका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। चीन के इन मंसूबों को रूस भी भली-भांति जानता है। रूस के उत्तर में ही Arctic है और रूस चाहता है कि, वह यूरोप तक अपनी पहुँच आसान बनाने के लिए यहाँ Northern Sea Route को स्थापित करे। ऐसे में, सीधे तौर पर यहाँ चीनी और रूसी के हितों का टकराव देखने को मिल सकता है।
खैर ये तो बात हुई Arctic की, पर दक्षिण में भी Antarctica को लेकर चीन की नीयत में खोट नज़र आ रहा है। दुनिया के कुल भू-भाग के 10 प्रतिशत हिस्से को कवर करने वाले इस महाद्वीप पर चीन तीन गतिविधियों को अंजाम देना चाहता है- वो हैं मछ्ली पकड़ना, तेल/गैस निकालना और minerals के लिए खनन करना। वर्ष 1961 में प्रभाव में आई, Antarctica Treaty System के तहत इस द्वीप पर किसी भी देश द्वारा किसी भी प्रकार की सैन्य गतिविधि को अंजाम देना पूरी तरह प्रतिबंधित है। ऐसे में चीन यहाँ मछ्ली पकड़ने के बहाने और वैज्ञानिक शोध की आड़ में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है।
अभी Antarctica पर 7 देश अपना दावा करते हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय तौर पर कोई मान्यता नहीं मिली हुई है। ये 7 देश हैं: ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, ब्रिटेन, नॉर्वे, अर्जेन्टीना, चिली और न्यूज़ीलैंड। हालांकि, कुछ सालों से चीन ऑस्ट्रेलिया के दावे वाले हिस्से में तेजी से अपने शोध केंद्र स्थापित कर रहा है, ताकि वह इनकी आड़ में यहाँ अपना दावा ठोक सके।
7 देशों द्वारा बांटे गए इस द्वीप की कोई आधिकारिक सीमा नहीं है। Antarctica Treaty System के तहत कोई भी देश इस द्वीप के किसी भी हिस्से पर अपना शोध केंद्र स्थापित कर सकता है। ऐसे में इन्हीं शोध केंद्र के जरिये चीन ने ऑस्ट्रेलिया के दावे वाले हिस्से पर अपनी गतिविधि बढ़ानी शुरू कर दी है।
ऊपर दी गयी तस्वीर में पीला हिस्सा ऑस्ट्रेलिया के दावे वाला क्षेत्र है, जिसमें चीन ने अपने तीन शोध केन्द्रों को स्थापित किया हुआ है। इनमें से दो शोध केंद्र तो द्वीप के काफी अंदर जाकर स्थापित किए गए हैं। कोरोना के समय, दुनियाभर के देश अपने अपने शोध कार्यों को कुछ समय के लिए रोक रहे हैं, लेकिन इस बात का फायदा उठाते हुए चीनी कंपनियाँ इस द्वीप पर अपनी गतिविधियों को बढ़ा रही हैं। यानी, कोरोना का फायदा उठाकर चीन Antarctica पर भी अपने भू-राजनीतिक हितों को बढ़ावा दे रहा है।
ज़ाहिर सी बात है कि, चीन की इन्हीं हरकतों की वजह से ऑस्ट्रेलिया चिंतित है। कोरोना से पहले ही Antarctica को लेकर ऑस्ट्रेलिया और चीन एक दूसरे के आमने-सामने थे, तो वहीं अब, कोरोना के बाद बिगड़े रिश्तों की वजह से यह लड़ाई और भीषण रूप ले सकती है। Antarctica Treaty System को हर तीस साल बाद review किया जाता है और अब इस treaty पर वर्ष 2048 में पुनर्विचार किया जाएगा। इसी को लेकर चीन पहले से ही अपनी तैयारी कर रहा है, ताकि वर्ष 2048 आते-आते इस द्वीप पर उसके दावे मजबूत हो सकें।
अगर आप सोचते हैं कि, चीन की विस्तारवादी नीति के तहत उसकी आक्रामकता सिर्फ हिमालय क्षेत्र, मध्य एशिया और दक्षिण चीन सागर तक ही सीमित है, तो आप बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं। दुनिया के सबसे उत्तरी और दक्षिणी छोर पर भी चीन आने वाले कुछ दशकों में बड़े विवाद को भड़काने की तैयारी कर रहा है। अगर चीन को जल्द ही नहीं रोका गया, तो वह दिन दूर नहीं जब चीन ऐतिहासिक कारणों का हवाला देकर Arctic और Antarctica को भी चीनी क्षेत्र घोषित कर देगा। दुनिया को अभी से सजग होने की बहुत ज़रूरत है।