जैसे चीन पाक को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता है, वैसे अब भारत ताइवान को चीन के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है

भारत का ताइवान कार्ड चीन के पाकिस्तान कार्ड पर भारी पड़ेगा!

ताइवान

मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित कराने से बचाना हो, या पाकिस्तान को FATF ब्लैक लिस्ट में जाने से बचाना, चीन ने सदैव अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ अपनी कूटनीति के तहत किया है। ऐसे में पाकिस्तान जैसे छोटे प्रतिद्वंद्वियों का भी अपने शत्रु के खिलाफ बेहतर इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं भारत चीन से यह सीख सकता है। जैसे भारत के लिए पाकिस्तान एक समस्या है उसी प्रकार से ताइवान चीन के लिए एक समस्या है। दोनों देशों के बीच समानता भी है। ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान और ताइवान दोनों अपने प्रतिद्वंदी देश का हिस्सा रहे हैं। जिस प्रकार से पाकिस्तान का निर्माण भारत विभाजन के बाद 1947 में हुआ था, उसके पूर्व वह भारत का ही हिस्सा था। लगभग उसी प्रकार 1949 में ताइवान का निर्माण, चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के पश्चात हुआ था।

ताइवान की स्थापना करने में चीन के लोकतंत्रवादी नेता च्यांग काई शेक की महत्वपूर्ण भूमिका थी। माओ के नेतृत्व में जब चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हुई तो च्यांग काई शेक अपने समर्थकों के साथ चीन के निकट फारमोसा द्वीप आ गए। यही फारमोसा द्वीप आज का ताइवान है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि च्यांग काई शेक के भारत के तात्कालिक प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से अच्छे संबंध थे। इसके बावजूद नेहरु ने उस समय कम्युनिस्ट चाइना को मान्यता देकर ताइवान को कूटनीतिक रूप से हानि पहुंचाई। पंडित नेहरू की साम्यवादी विचारधारा में आस्था थी। यही कारण था कि 1949 में नेहरू माओ के वकील के रूप में कार्य करने लगे थे।

ताइवान के मुद्दे को खुद ही ठंडे बस्ते में डालना भारत की एक बड़ी कूटनीतिक भूल थी। आज फिर से ताइवान को भारत की अत्यधिक आवश्यकता है। ताइवान, भारत से अपने संबंध बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासरत है। ताइवान ने टाइम्स में छपे एक opinion में कहा गया है कि “ताइवान को भारत के साथ खड़ा होना चाहिए। उसे भारत के साथ अपने रिश्ते को और गहरा करना चाहिए। विशेष रूप से आर्थिक सैनिक और इंटेलिजेंस शेयरिंग के क्षेत्र में दोनों देशों को सहयोग करना चाहिए जिससे वह चीन के विस्तारवाद को रोक सके और शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगा सकें।”

यह मांग भारत में भी लगातार उठ रही है कि दोनों देशों को आर्थिक, तकनीकी, मिलिट्री और इंटेलिजेंस के क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाना चाहिए तथा सहयोग के अन्य क्षेत्रों पर भी विचार करना चाहिए।

मोदी सरकार लगातार इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में चीन पर निर्भरता कम करने का प्रयास कर रही है। ताइवान तकनीकी रूप से एक उन्नत देश है जो इस कार्य में भारत की मदद कर सकता है। ताइवान में कार्यरत Apple के कई सहयोगी प्रतिष्ठान पहले ही भारत में निवेश की बात कर चुके हैं। अब भारत सरकार को निवेश के अन्य क्षेत्रों में भी ताइवान को आमंत्रित करना चाहिए।

वुहान वायरस के फैलाव के बाद से अमेरिका और चीन के बीच शीत युद्ध की स्थिति बनी हुई है। यह समय ताइवान के लिए एक सुनहरा अवसर है। ताइवान की कोशिश है कि वह अपनी स्वतंत्रता के लिए अधिक से अधिक अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करे। ऐसे में भारत जैसी कोई शक्ति यदि सहयोग की बात करेगी तो निश्चित रूप से ताइवान के लिए यह अत्यंत लाभकारी होगा। भारत भी व्यापारिक समझौते में आसान शर्तों पर ताइवान से उच्च तकनीक हासिल कर सकता है, साथ ही पाकिस्तान और चीन के विरुद्ध भी ताइवान का इस्तेमाल कर सकता है।

गौरतलब है कि चीन और पाकिस्तान के बीच जो संबंध है वह दो बराबर के सहयोगियों के ना होकर अधीनस्थ और मालिक के संबंध अधिक लगते हैं। चीन पाकिस्तान को किसी उपनिवेश की तरह इस्तेमाल करता है। इसके विपरीत भारत और ताइवान के संबंध बराबरी के स्तर पर बने होंगे अतः आपसी सहयोग दोनों देशों के लिए दूरगामी रूप से एक बेहतर निर्णय होगा।

डोकलाम स्टैंड ऑफ के बाद विदेश मामलों की संसदीय समिति ने भी यही सुझाव दिया था कि भारत को ताइवान के साथ अपने संबंध मजबूत करने चाहिए।

संसदीय समिति, जिसमें कई दलों के नेता शामिल थे, उन्होंने भारत की चीन नीति में बदलाव का सुझाव देते हुए कहा था “भारत से संबंधित कुछ मुद्दों से निपटने के दौरान, चीन द्वारा आक्रामक नीति अपनाने के तथ्य को देखते हुए, समिति के लिए यह मुश्किल है कि वह चीन के प्रति भारत की पारंपरिक नीति को आगे भी जारी रखे। चीन जैसे देश से निपटने के लिए अनिवार्य रूप से एक लचीले दृष्टिकोण की आवश्यकता है। समिति दृढ़ता के साथ यह मानती है कि सरकार को (चीन के विरुद्ध) ताइवान के साथ अपने संबंधों सहित सभी विकल्पों का उपयोग करने पर विचार करना चाहिए।”

यदि भारत ताइवान के मुद्दे पर अधिक मुखर होगा तो दुनिया के लिए यह स्पष्ट संदेश होगा कि भारत एशिया की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार है। साथ ही भारत की आक्रामक विदेश नीति चीन को भी असहज कर देगी क्योंकि अब तक चीन भारत की रक्षात्मक विदेश नीति का ही फायदा उठाता रहा है।

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