क्या भोजपुरी वास्तव में एक फूहड़ भाषा है? यदि नहीं, तो किसने इसे फूहड़ बनाया और क्यों ?

'बिहार के फिर से विकसित करे के बा तब भोजपुरी के विकास सबसे जरूरी बा'

भोजपुरी

भाषा हमारे अस्तित्व का मूल है। अपनी मातृभाषा में ही हम सबसे बेहतर सोच, समझ और अभिव्यक्त कर सकते हैं। मेरी मातृभाषा भोजपुरी है जिसे आज एक फूहड़ भाषा का दर्जा दिया जा चुका है। हाल में आई Live Mint की एक रिपोर्ट से यह स्पष्ट भी होता दिखाई दे रहा है। इस रिपोर्ट के आधार पर कई लोगों ने यह घोषित भी कर दिया है कि Bhojpuri एक फूहड़ भाषा है!!

परंतु क्या यह वास्तविकता है? क्या भोजपुरी वास्तव में एक फूहड़ भाषा है?

नहीं, भोजपुरी फूहड़ अशिष्ट या अभद्र भाषा नहीं है बल्कि इसे फूहड़ और गंदा किया गया है वह भी जानबुझ कर। मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूँ क्योंकि यह मेरी मातृभाषा है बल्कि इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यही सच्चाई है।

पहले रिपोर्ट देख लेते हैं। Live Mint ने पिछले कुछ समय में Wikipedia की अलग अलग भाषाओं के पेज का विश्लेषण किया जिसके बाद एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई। विकिपीडिया के Bhojpuri पृष्ठों के विश्लेषण में यह बात सामने आई कि लोग सभी अधिक खोज सेक्स से जुड़े हुए विषयों पर करते हैं। भोजपुरी पेज पर सबसे अधिक देखा गया पृष्ठ “बुर” यानि Vagina का था, जो महिलाओं के योनि के लिए स्थानीय शब्द है। सात महीने के विश्लेषण वाले इस रिपोर्ट में महिला जननांग और यौन स्थितियों के खोज के बारे में लगातार वृद्धि देखी गयी।

इस रिपोर्ट के आधार पर एक बार फिर से भोजपुरी भाषा का व्यापकीकरण होने लगा है और इसे गंदी और फूहड़ भाषा के टैग को स्थायी करने की कोशिश होने लगी है।

परंतु यह सच नहीं है। भोजपुरी में अगर लोग सेक्स से जुड़े विषयों पर सर्च कर रहे हैं तो इसके पीछे का करण मानसिकता में आया बदलाव है, जो यह पिछले 10 वर्षों से भोजपुरी फिल्मों और गानों के जरीये भरे गए अश्लील कंटेन्ट के कारण है।

5 करोड़ से अधिक वक्ताओं के साथ मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में बोली जाने वाली भाषा को भोजपुरी सिनेमा के स्टार्स ने धज्जियाँ उड़ाने और फूहड़ता से भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

रही सही कसर इंटरनेट ने पूरी कर दी जिससे ऐसे कंटेन्ट स्वतंत्र रूप से उपलब्ध हो गए और इससे न सिर्फ Bhojpuri भाषा दूषित हुआ बल्कि यौनिकता और भड़काऊपन से भर गया।

बिहार, यूपी, झारखंड, पश्चिम बंगाल, गुजरात, मध्य प्रदेश और मुंबई समेत मॉरीशस जैसे देशों में भी Bhojpuri सिनेमा और गानों के चाहने वाले करोड़ों लोग हैं। मॉरीशस की पहल पर यूनेस्को ने भोजपुरी संस्कृति के ‘गीत-गवनई’ को सांस्कृतिक विरासत का दर्जा दिया हुआ है।

ऐसा भी नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा या फिल्मों का कंटेन्ट शुरू से ही इतना अश्लील था या इनका आधार देह प्रदर्शन था। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने सबसे पहले लेखक और निर्देशक नाजिर हुसैन से भोजपुरी भाषा में फ़िल्म बनाने की सिफारिश की थी।

साल 1963 में ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो नाम से सुपरहिट फिल्म बनी थी। उस दौरान फिल्मों को भोजपुरी के गौरवशाली संस्कृति के प्रतीक के रूप देखा जाता था।

कौन दिसा में लेके चला रे बटोहिया.. ये लाइन है ‘नदिया के पार’ फिल्म की है जो ये बताने के लिए काफी है कि भोजपुरी फिल्मों और गानों का भी एक समय था। उस समय लोग भोजपुरी संगीत सुनकर उसकी धुन गुनगुनाने लगते थे। आज भी ये फिल्म लोगों को बहुत पसंद है।

परंतु पिछले 10-15 वर्षों में भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री ने जिस प्रकार से करवट ली है और अपने विषय को विकृत किया है कि उसे लोग अब सॉफ्ट पॉर्न भी कहने लगे हैं। एक समय था जहां भोजपुरी फिल्मों में संस्कृति और सभ्यता समाहित हुआ करती थी, अब भोजपुरी सिनेमा में सभ्यता और संस्कृति की जगह फूहड़ता ने ले ली है और अश्लीलता परोसने का माध्यम हो चुका है।

आई चौक की रिपोर्ट के अनुसार 300 से ज्यादा Bhojpuri फ़िल्मों में एक्टिंग कर चुके कुणाल ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि वर्ष 2003 के बाद भोजपुरी फ़िल्मों की सफलता ने कई छोटे और बी-सी ग्रेड फिल्म निर्माताओं को अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि फिल्म निर्माताओं ने भोजपुरी फिल्मों के कम बजट को देख कर कमाई करने का साधन बना लिया। कुणाल ने स्पष्ट किया कि ऐसी स्थिति में फिल्म निर्माताओं ने भोजपुरी संस्कृति को समझे बगैर बी और सी ग्रेड की हिंदी फ़िल्मों के फॉर्म्युले पर भोजपुरी फ़िल्में बनानी शुरू की, जिसमें महिलाओं को सेक्स सिंबल के रूप में दिखाया गया और उनसे खूब अंग प्रदर्शन कराए गए।

इसके अलावा फ़िल्मों को हिट कराने में द्विअर्थी संवादों का खूब सहारा लिया गया, जिससे भोजपुरी सिनेमा का स्तर गिरता चला गया। बाकी कसर छोटू छलिया, गुड्डू रंगीला जैसे फूहड़ गायकों ने पूरी कर दी। इतने घटिया-घटिया गाने और म्यूजिक वीडियो बनाए भोजपुरी सिनेमा को सॉफ्ट पॉर्न कहा जाने लगा।

भोजपुरी सिनेमा का स्तर गिरने का एक कारण और भी है और वह है प्राइवेट भोजपुरी एल्बम। इन एल्बमों पर कोई भी सेंसर नहीं होता जिसकी वजह से गायक और निर्माता अपने गाने को हिट करने के लिए सबसे आसान अश्लीलता का फॉर्मूला अपनाते हैं। कुणाल ने साफ तौर पर कहा कि भोजपुरी सिनेमा को अश्लीलता का प्रतीक बनाने में प्राइवेट एल्बमों का सबसे ज्यादा हाथ है।

इसका परिणाम यह हुआ कि भोजपुरी में अश्लीलता, अंग प्रदर्शन और डबल मीनिंग डायलॉग सफलता के मानक माने जाने लगे। रुपया कमाने की होड़ में छोटे-बड़े सभी एक्टर और गायकों ने म्यूजिक एल्बम लॉन्च किए। ऐसे ऐसे गानों को परोसा गया कि उनका नाम लेने में भी शर्म आती है।

उदाहरण के लिए, लहंगा उठी त गोली चल जाई, लगाय दीहो चोलिया के हूक राजा जी, तनी सा जींस ढीला करो, चोली में घुस गेला चूहा, हिलेला हिलेला गोरी जोबनवा, राते दीया बुताके पिया क्या-क्या किया, पिया बबुआ के बिया अब पेट में डाल दी, ललैया चूसो राजा जी,लहंगा में चिकन सामान बा, दबा दबा के हमरो फूला देला। मरद अभी बच्चा बा, होली में चोली के हुक ना खुली, डाले द भितरिया ए जान, सेनेटाइजर सामान पर लगाके अइहे रे, लहंगा में कोरोना, समेत सैकड़ों गानों ने न सिर्फ फूहड़ता की हद को पार की है, बल्कि भोजपुरी सिनेमा और भाषा दोनों को गर्त में धकेल चुके हैं।

भोजपुरी के पांच स्टार माने जाने वाले मनोज तिवारी, रवि किशन, पवन सिंह, दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ और खेसारी लाल यादव ने अश्लीलता और फूहड़ता को बेच कर न सिर्फ ऊंचाई और अकूत पैसा कूटा है, बल्कि भोजपुरी भाषा की छवि भी मटियामेट कर दी है। रितेश पांडे और अरविंद अकेला कल्लु भी उन स्टार की राह पर ही चले। इन सभी ने युवा वर्ग को प्रदूषित कर उनके अंदर हीनता की भावना को भर दिया है। TRP रेटिंग और रुपयों के चक्कर में इस अश्लीलता ने भोजपुरी के बारे में ही एक ट्रेंड बनवा दिया है जो बेहद शर्मनाक है।

बिहार के भोजपुरी की न तो ये संस्कृति और न ही इतिहास है। भोजपुरी में प्यार, विरह, निर्गुण और सोहर को जितनी खूबसूरती के साथ गय गया है, शायद ही आपको वो बॉलीवुड के किसी गानों में सुनने को मिले।

भरत व्यास, मदन राय, शारदा सिन्हा जैसे कलाकारों को आज कोई नहीं सुनता। उदाहरण के लिए सोहर जैसे जुग-जुग जियसु ललनवा भवनवां के भाग जागल हो, भंवरवा के तोहरा संग जाई, शादी के गीत जैसे आगे माई हरदी हरदिया दूभ पातर न आज भी भोजपुरी की एक अलग कहानी बताते हैं। वहीं अगर साहित्य की बात की जाए तो भिखारी ठाकुर बीसवीं शताब्दी के महान लोक कलाकारों में से एक रहे हैं जिन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर भी कहा जाता है।

नाटक, भजन-कीर्तन, गीत-कविता जैसी सभी प्रकार की रचना न सिर्फ उन्होंने रचा है बल्कि उसे देश विदेश तक प्रसारित भी किया है। बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी-बेचवा, भाई-बिरोध, गंगा-स्नान, नाई-बाहर, और नेटुआ सहित कई नाटक, सामाजिक-धार्मिक प्रसंग गाथा और गीतों की रचना ने भोजपुरी को एक नई पहचान दिलाई थी।

राहुल सांकृत्यायन का ‘जोंक’, भिखारी ठाकुर का ‘गबर घिचोर’, विमलानंद सरस्वती का ‘किसान भगवान’, प्रो.रामदेव शुक्ल का ‘ तिसरकी आंख का अन्हार’, विवेकी राय का ‘भड़ेहर’, विश्वनाथ तिवारी की ‘इमली की बीघा’ जैसी कहानियाँ पढ़ने के बाद यह ऐहसास हो जाएगा कि भोजपुरी कितनी संवेदनशील और दिल को छु जाने वाली भाषा है। भोजपुरी केवल भाषा नहीं, दर्शन भी है। अगर इसे फिर से समृद्ध बनाना है तो सबसे पहले इन फूहड़ कलाकारों और फिल्म निर्माताओं का बहिष्कार आवश्यक है तथा सेंसर बोर्ड की आवश्यकता है।

“भासा आ भोजन एक दूसरे से जुड़ल हवे। जवने इलाका क बोली गरीब बना दीहल जाला ऊ इलाका अपने आप गरीब होत चलि जाला। अगर बिहार के फिर से विकसित करे के बा तब भोजपुरी के विकास सबसे जरूरी बा।“

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