सुप्रीम कोर्ट के इरादे अब स्पष्ट हैं – प्रशांत भूषण जैसे कथित वकीलों की दादागिरी अब सुप्रीम कोर्ट में और नहीं चलेगी। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण के भड़काऊ ट्वीट्स पर संज्ञान लेते हुए उसे कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराया है। 20 अगस्त को प्रशांत के अपराध को ध्यान में रखते हुए आवश्यक दंड की घोषणा की जाएगी।
इस निर्णय को जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस कृष्ण मुरारी की संयुक्त पीठ ने सुनाया, जहां पर ये स्पष्ट किया गया संविधान द्वारा प्रदान की गई अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि इसका उपयोग कर देश के किसी भी संवैधानिक संस्था को अकारण अपमानित करने की भी छूट मिले। सच कहें तो जो इस निर्णय से सुप्रीम कोर्ट ने अक्सर ही विपरीत निर्णयों के लिए कोर्ट को अपमानित करने वालों को एक कड़ा संदेश दिया है कि अब उनकी दादागिरी सुप्रीम कोर्ट में और नहीं चलेगी।
परंतु वे ट्वीट आखिर कौन से थे, जिनके कारण प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना हेतु दोषी ठहराया? दरअसल निम्नलिखित ट्वीट्स पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराया है –
पहला ट्वीट सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े द्वारा एक बाइक पर बैठे हुए फोटो खिंचवाने को लेकर थी, जिसमें प्रशांत ने टिप्पणी की थी कि जहां एक ओर सुप्रीम कोर्ट लॉकडाउन में है और नागरिक अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित है, तो वहीं मुख्य न्यायाधीश ‘बिना हेलमेट और मास्क के बाइक पर घूम रहे हैं’। इस ट्वीट को दो हिस्सों में बांटकर निर्णय दिया गया, जहां नागरिकों को अधिकार से वंचित रखने वाली टिप्पणी के लिए प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना का दोषी माना गया।
ऐसे में, प्रशांत भूषण के विरुद्ध जो निर्णय लिया गया है, वो अपने आप में बहुत क्रांतिकारी निर्णय है। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रशांत भूषण का वो ट्वीट भी सामने आया है, जहां उन्होने अयोध्या और अनुच्छेद 370 के मामले में सुप्रीम कोर्ट की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने से पहले दो बार भी नहीं सोचा। जनाब ने ट्वीट किया, “जब इतिहास लिखा जाएगा कि कैसे भाजपा सरकार के दौरान हमारे लोकतन्त्र की हत्या की गई, तो उसमें सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को भी लिखा जाएगा, विशेषकर पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका को!”
इस निर्णय से सुप्रीम कोर्ट ने ये स्पष्ट किया गया है कि जनहित याचिका के नाम पर वामपंथियों की दादागिरी अब और नहीं बर्दाश्त की जाएगी। जब से PIL यानि जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1986 में लाया गया, तब से प्रशांत भूषण और इन्दिरा जयसिंह जैसे एक्टिविस्ट्स के लिए मानो ये एक लाइफ लाइन बन गई, जिसके दम पर वे जानबूझकर केंद्र सरकार द्वारा देश की भलाई में लाये जा रहे प्रोजेक्ट्स पर रोक लगाने के लिए PIL पे PIL किए जा रहे थे।
विश्वास नहीं होता तो राफ़ेल मुद्दे के पन्ने पलट लीजिये। एक अहम एयरफ़ोर्स डील को किस तरह से जानबूझकर एक घोटाला में सिद्ध करने का इन वामपंथियों ने प्रयास किया, ये किसी से नहीं छुपा है। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था, “PIL का दुरुपयोग होने के कारण Judicial Activism में अप्रत्याशित उछाल आया है। इन पीआईएल को ज़रूरत से ज़्यादा पब्लिसिटी दी गई थी, जिसके कारण जिन PIL को कभी कोर्ट में दिखना भी नहीं चाहिए था, वे भी दायर हुए हैं।”
सच कहें तो प्रशांत भूषण जैसे पार्ट टाइम अधिवक्ताओं और फुल टाइम एक्टिविस्ट्स के लिए ये निर्णय किसी करारे तमाचे से कम नहीं है। जिन लोगों के लिए PIL फाइल करना उनका पेशा बन चुका है, उनके लिए सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान निर्णय एक स्पष्ट संदेश है – यदि हमसे बदतमीजी करोगे, तो तुम भी कहीं के नहीं रहोगे।