जैसे ही अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी ने उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार के रूप में सीनेटर कमला हैरिस की घोषणा की तो, दुनिया भर के भारतीय आश्चर्यचकित हो गए। ऐसा इसलिए क्योंकि, भारतीय मूल के एक व्यक्ति को एक ऐसे प्रतिष्ठित पद के लिए नामांकित किया, जो हमेशा से गोरों का गढ़ माना जाता रहा है। हालाँकि, तुरंत भारतीयों को ही यह भी अहसास होने लगा कि, व्हाइट हाउस में कमला हैरिस की मौजूदगी भारतीय प्रवासियों के लिए लाभकारी नहीं होने वाली है।
कमला हैरिस अमेरिकी सत्ता के गलियारों तक पहुंचने वाली पहली भारतवंशी महिला हैं। बता दें कि, कमला हैरिस चेन्नई की श्यामला गोपालन हैरिस और जमैकन-अमेरिकी डोनाल्ड हैरिस की बेटी हैं। अब वो अमेरिका में उपराष्ट्रपति पद का टिकट पाने वाली भारतीय और एशियाई मूल की पहली अमेरिकी बन गई हैं।
यह जानना बेहद आवश्यक है खास कर उन लोगों के लिए जो कमला हैरिस को ले कर बेहद उत्साहित हैं कि, वो अपने भारतीय मूल को तो स्वीकार करती हैं, लेकिन खुद की अमेरिकन की पहचान को अधिक महत्व देती हैं। उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की घोषणा में भी ब्लैक-अमेरिकन ही पहले लिखा गया था।
उनके इतिहास को देखा जाए तो कमला ने एक लंबे समय तक खुद को भारतीय मूल से दूर दिखाने की कोशिश की है। पिछले वर्ष, राष्ट्रपति पद के नामांकन की रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने अमेरिकी भारतीयों के वोट बैंक को देखने के बाद ही अपनी भारतवंशी पहचान को खुले तौर पर स्वीकार करना शुरू किया। कमला हैरिस की नियुक्ति, शायद अमेरिकी लेफ्ट लिबरल चैनल, खासकर CNN के लिए एक अच्छी खबर थी क्योंकि अभी तक उन्हें जो बाइडेन जैसे अलोकप्रिय व्यक्ति का बचाव करना पड़ रहा था।
डेमोक्रेट्स की तरफ से हैरिस का नामांकन सिर्फ और सिर्फ भारतीय-अमेरिकी और ब्लैक-अमेरिकन के वोट पाने के लिए किया गया हैं। जब भी किसी भारतवंशी को किसी शीर्ष पद के लिए नामांकित किया जाता है तो अक्सर यह देखा गया है कि भारत के लोग भावनाओं में बह जाते हैं। यही कारण है कि कमला हैरिस के नामांकन के ज़रिए डेमोक्रेट पार्टी भारतीयों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रही है।
हालाँकि वास्तविकता एकदम अलग है और कमला हैरिस के पिछले दो वर्षों के राजनैतिक पदचिह्नों को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि कमला की निष्ठा कहाँ है। कमला हैरिस ने पिछले साल जम्मू-कश्मीर पर विवादित बयान दिया था। उन्होंने एक तरह से भारत सरकार को चेतावनी देते हुए कहा था, “हम कश्मीरियों को यह याद दिला दें कि वे दुनिया में अकेले नहीं हैं। हम स्थिति पर लगातार नज़र रखे हुए हैं। यदि ज़रूरत हुई तो हम हस्तक्षेप कर सकते हैं।“
यही नहीं, कमला हैरिस ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त करने बाद वहां के हालात को काबू में करने के लिए लॉकडाउन का विरोध किया था। इसके अलावा दिसंबर 2019 में जब विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अनुच्छेद 370 हटाने और CAA का विरोध करने वाली भारतीय मूल की अमेरिकी सांसद प्रमिला जयपाल से मुलाकात करने से मना कर दिया था तब कमला हैरिस ने इस मामले पर उनकी आलोचना भी की थी।
अक्सर यह देखा गया है कि, अब अंतर्राष्ट्रीय प्रेस, डेमोक्रेट और दुनिया भर के लिबरलों के अंदर कश्मीर मुद्दे की आड़ में भारत की नीतियों का विरोध करने की एक प्रवृत्ति सी बन गई है। ब्रिटेन के जेरेमी कॉर्बिन ने भी यही कोशिश की थी और उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा। अगर कमला हैरिस भी उसी राह पर चलती हैं तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि, भारतीय-अमेरिकी मतदाता उनके भारतवंशी होने पर भी उन्हें वोट नहीं देने वाले।
भारत की वर्तमान मोदी सरकार और अमेरिकी ट्रम्प प्रशासन ने चीन के खिलाफ एक मजबूत गठबंधन की ओर कदम बढ़ाया है। और अगर बाइडेन-हैरिस का गठबंधन सत्ता में आता है तो सभी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि, जो बाइडेन ने अभी से ही चीन के पक्ष में बातें करना शुरू कर दिया है। कमला हैरिस और अन्य डेमोक्रेटिक सीनेटरों ने ही कोरोनावायरस को “चीनी वायरस” या “वुहान वायरस” बुलाए जाने की निंदा करते हुए इसे नस्लवादी बताया था और इसके खिलाफ प्रस्ताव भी ले कर आए थे।
अगर डेमोक्रेट वास्तव में एक भारतीय चेहरे को आगे रखना चाहते थे, तो वे तुलसी गबार्ड को सामने कर सकते थे, जो अपने भारतीय मूल को गले लगाती हैं। कमला हैरिस अपनी भारतीय जड़ों को स्वीकार तो करती हैं लेकिन वो अपनी अमेरिकी पहचान को ही अधिक महत्व देती हैं। अब भारतीय-अमेरिकियों को उनके इस सौतेले व्यवहार को समझना होगा और उनके नामांकन पर खुशियाँ मानना बंद करना होगा। इस वर्ष के राष्ट्रपति चुनाव में लगभग 13 लाख भारतीय-अमेरिकियों के वोट करने की उम्मीद है और हैरिस के चयन ने बाइडेन के अभियान को एक भावनात्मक बढ़त दी है। लेकिन यह लंबे समय तक नहीं टिकने वाला है। यह तय है कि, डोनाल्ड ट्रम्प ही इस चुनाव को जीतने जा रहे हैं।