Secularism बना तख्तापलट का कारण- इस्लामिक कट्टरपंथियों का साथ दे रहे Mali के राष्ट्रपति को गंवानी पड़ी कुर्सी

देश की जनता में उत्साह का माहौल

माली

18 अगस्त को पश्चिमी अफ्रीकी देश माली से बेहद ही हैरान करने वाली खबर सामने आई। मंगलवार को लोकतांत्रिक सरकार के शासन में सोया देश जब अगले दिन सो कर उठा तो देश में तख्तापलट हो चुका था। खबर आई कि, हफ्तों के सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बाद मंगलवार को देश के सैनिकों ने सरकार के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया और देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को कब्ज़े में ले लिया। बाद में राष्ट्रपति ने “खून-खराबा होने से देश को बचाने के लिए” इस्तीफ़े की घोषणा भी कर दी। राष्ट्रपति बोबाकर काइता पर पिछले कुछ महीनों से भ्रष्टाचार करने, अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने और इस्लामिक कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के आरोप लग रहे थे। ऐसे में माली के आम लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे। अब जब सैनिकों ने सरकार को गिराकर सैन्य शासन स्थापित कर दिया है, तो देश की आम जनता में उत्साह देखने को मिल रहा है।

18 अगस्त की रात को हुई घटनाओं को समझने के लिए हमें आज से करीब 8 वर्ष पहले यानी वर्ष 2012 की घटनाओं को याद करना होगा। उस वर्ष भी माली में इसी प्रकार का तख़्तापलट किया गया था। तब भी लोगों में सरकार के खिलाफ रोष उत्पन्न हो गया था। लोगों में तब गुस्से के तीन प्रमुख कारण थे। पहला यह कि, सरकार अस्थिर थी और उसके पास लोगों का समर्थन हासिल नहीं था; दूसरा कि देश के उत्तरी हिस्से में Tuareg समुदाय के लोग अपने लिए अलग देश की मांग कर रहे थे और देश में अस्थिरता को बढ़ावा दे रहे थे। तीसरा कारण यह था कि, देश में अल-कायदा, MUJAO, Islamic Movement for Azavad जैसे आतंकी संगठन भी बहुत तेजी से सक्रिय हो रहे थे!

वर्ष 2012 में सरकार को अस्थिर पाकर इन आतंकी सगठनों ने माली के अलगाववादी संगठनों के साथ मिलकर उत्तर माली के कुछ हिस्सों पर भी कब्जा कर लिया था। तब सेना ने देश में तख़्तापलट कर दिया था। उसके बाद फिर कई विदेशी ताकतों को माली में हस्तक्षेप करना पड़ा। वर्ष 2013 में फ्रांस को अपनी सेना उतारनी पड़ी और इस्लामिक आतंकवादियों का सफाया करना पड़ा। बाद में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की देख-रेख में माली में सेना ने लोकतांत्रिक चुनाव कराया और उन चुनावों में उन्हीं राष्ट्रपति काइता की जीत हुई थी, जिन्हें इस मंगलवार रात को सैनिकों ने गद्दी से उतार फेंका है।

वर्ष 2018 में माली में दोबारा चुनाव हुए और दोबारा काइता की जीत हुई। लेकिन पिछले दो सालों से दोबारा देश में तेजी से अलगाववाद और कट्टरपंथ को बढ़ावा मिला है। देश में ऑपरेट कर रहे कई आतंकवादी संगठन देश को “आज़ाद” कराकर यहाँ इस्लामिक शासन और शरिया कानून स्थापित करना चाहते हैं। हालांकि, काइता इन्हें दबाने में असफल साबित रहे।

हालांकि, अब डर यह है कि सेना द्वारा समस्या के “समाधान” के लिए लिया गया यह फैसला माली के लिए नई समस्याएँ पैदा कर सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि मजबूत इस्लामिक आतंकवादी समूहों से मुक़ाबला करने के लिए माली के पास पर्याप्त सेना और संसाधन नहीं है। माली सेना अन्य अफ्रीकी देशों की तरह ही बढ़िया हथियारों की कमी से जूझ रही है। ऐसे में माली की सेना शायद ही देश को अपने दम पर आतंकवादियों से आज़ाद करा पाए।

इसके अलावा सेना के इस कदम से वहाँ के लोग बेशक खुश हों, लेकिन अब तख्तापलट के बाद माली का नेतृत्व कर रहे सैन्य नेताओं पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगने का खतरा भी मंडराने लगा है। अमेरिका से लेकर UN, फ्रांस और ECOWAS यानि (Economic Community Of West African States) भी माली सेना के इस कदम की घोर निंदा कर चुके हैं। हालांकि, सेना ने कहा है कि, वह जल्द ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ मिलकर देश में लोकतांत्रिक चुनाव कराने के पक्ष में है। ऐसे में देखना होगा कि इस अफ्रीकी देश में दोबारा राजनैतिक स्थिरता कब स्थापित हो पाएगी, क्योंकि उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीका की शांति के लिए ऐसा बेहद महत्वपूर्ण है!

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