जापान के प्रधान मंत्री शिंजो आबे ने भले ही शुक्रवार को अपनी बीमारी के कारण जापान के प्रधानमंत्री का पद छोड़ने का फैसला लिया हो, परन्तु जापान के विकास में उनके योगदान को हमेशा दुनिया याद रखेगी।
वो चाहते तो अपनी बीमारी को छुपा कर सत्ता पर काबिज रह सकते थे परन्तु उन्होंने एक जिम्मेदार प्रधानमंत्री का दायित्व निभाना और अपने देश की भलाई के लिए इस पद को छोड़ना उचित समझा। आबे पहली बार 2006 में देश के पीएम बने थे, लेकिन बीमारी के कारण 2007 में इस्तीफा दे दिया। उनका वर्तमान कार्यकाल 2012 में शुरू हुआ। वह सबसे अधिक बार भारत आने वाले जापानी प्रधानमंत्री हैं। वो अब तक 4 बार भारत की यात्रा कर चुके हैं। यानि देखा जाए तो वह भारत के साथ अपने रिश्तों को बेहद अहम मानते थे। भारत के साथ यह संबंध असैन्य परमाणु ऊर्जा से लेकर समुद्री सुरक्षा, बुलेट ट्रेन से लेकर गुणवत्ता के बुनियादी ढाँचे तक तक पहुंच चुका है।
जिस तरह से जापान का इतिहास हिंसक और साम्राज्यवादी रहा है, उसे देखते हुए जापान के नेताओं पर एक अतिरिक्त बोझ रहता है। कभी कभी यह इतिहास जापान और उसके नेताओं पर भारी पड़ता है। विशेष रूप से चीन और कोरिया में किए गए जापान के कारनामे के कारण जापान वैश्विक मामलों में एक मजबूत आवाज मानने के लिए अनिच्छुक रहा है। उसे लगता था कि अगर जापान ने आवाज उठाई तो वैश्विक स्तर पर उसे पुराने हिंसक तरीकों की ओर लौटते देखा जाएगा।
इस दबाव के बावजूद शिंजों आबे ने अपने धैर्य और डिप्लोमेसी से जापान को न सिर्फ एक मजबूत ऊंचाई दी, बल्कि बिना छवि बिगाड़े जापान को सैन्य रूप से भी मजबूत किया। वर्ष 2012 में जब आबे सत्ता में आए, तो जापान पाँच वर्षों में पांच प्रधानमंत्रियों को देख चुका था जिससे अर्थव्यवस्था की स्थिति नाजुक थी। उन्होंने अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए तत्काल 3 सूत्रीय आर्थिक सुधारों को लागू किया जिसे Abenomics भी कहा जाता है। इससे धीरे धीरे जापान स्थिरता की ओर लौटा।
वर्ष 2012 में जब शिंजो दूसरी बार पीएम बने, तो उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था कि वह इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में क्या हासिल करना चाहते हैं, एक स्वतंत्र और खुला इंडो-पैसिफिक जिसमें शांति कायम रहे और छोटे राष्ट्र बड़े देशों की धमकी के डर के बिना अपने विकास कार्यों को बढ़ा सके।
इस क्षेत्र में शांति के लिए प्रमुख खतरा चीन दिखाई दिया। इसलिए शिंजो का मिशन यह सुनिश्चित करना था कि अमेरिका इस क्षेत्र के लिए प्रतिबद्ध रहे और साथ ही चीन को यह भी समझाया कि वह सभी के साथ मिलकर चले। परंतु जब चीन ने फिर भी आक्रामकता नहीं छोड़ी तब शिंजों आबे ने जापान को भी मजबूत करना शुरू किया और अमेरिका के साथ साथ भारत से भी जापान के रिश्तों को नया आयाम दिया।
इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में एक रणनीतिक संतुलन बनाए रखना उनकी दीर्घकालिक दृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा था। इसलिए उन्होंने जापान, ऑस्ट्रेलिया, यू.एस. और भारत के साथ Quadrilateral Security Dialogue यानि QUAD को पुनर्जीवित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और सभी देशों को एक साथ लाए।
वर्ष 2016 में जब ट्रम्प के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से पहले ही चीन South China Sea में आक्रामक हो चुका था और अपने पड़ोसियों पर गुंडई दिखा रहा था। यही नहीं पूर्व और दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय दावों के साथ-साथ सभी अंतर्राष्ट्रीय कानून की अवहेलना करते हुए कृत्रिम द्वीपों पर निर्माण जारी रखे था।
उसी समय उत्तर कोरिया अपने नए नेता किम जोंग उन के नेतृत्व में परमाणु परीक्षणों के साथ जापान को लगातार उकसा रहा था। उत्तर कोरिया ने अपहरण किए गए जापानी नागरिकों को वापस करने से इनकार कर दिया और जापान के ऊपर मिसाइल भी दाग दी। यही नहीं अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने अमेरिका के सभी साथी देशों पर सवाल उठाना भी शुरू कर दिया था और उन्होंने जापान को भी निशाने पर लिया।
इन सभी चुनौतियों को शिंजों आबे ने समझा और बेहद ही संवेदनशील तरीके से सभी का सामना करते हुए हल निकाला। जापान को एक मजबूत ताकत बनाने के साथ-साथ अमेरिका को अपने पक्ष में किया और भारत तथा ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ अपने संबंध बढ़ा कर चीन और उत्तर कोरिया के खिलाफ Indo-Pacific में अपनी स्थिति मजबूत किया।
शिंजो आबे ने जापान के वैश्विक कद और प्रभाव को बढ़ाने, अपनी सैन्य क्षमताओं को बढ़ाने में सक्षम साबित हुए। वर्ष 2014 में एक ऐतिहासिक बदलाव में, शिंजों आबे की सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार जापानी सैनिकों को विदेशों में लड़ने की अनुमति देने के लिए संविधान के खंड को reinterpretation के लिए कानून पारित किया। वर्ष 2018 में घोषित पांच साल के रक्षा कार्यक्रम में 25.5 ट्रिलियन येन यानि 233.7 अरब डॉलर का आवंटन किया, जो पिछले पांच वर्षों में 6.4% की वृद्धि थी।
उन्होंने देश की सैन्य क्षमताओं में उल्लेखनीय वृद्धि की और संयुक्त राज्य अमेरिका पर अपनी पारंपरिक निर्भरता से परे जापान के रणनीतिक विकल्पों का विस्तार करने का भी प्रयास किया। इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब अमेरिका ने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप से कदम खींचे थे। उसके बाद जापान ने चीन के आर्थिक काउंटर के रूप में देखी जाने वाली ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप व्यापार का नेतृत्व किया।
पिछले सात वर्षों में, उन्होंने जापान के राजनीतिक परिदृश्य में स्थिरता ला दी है, जिससे बदलते भू राजनीतिक परिदृश्य में जापान आने वाले नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हो चुका है। वास्तव में उन्हें जापान का मोदी कहे तो कुछ गलत नहीं होगा क्योंकि आबे के लिए देश सबसे महत्वपूर्ण रहा है। प्रधानमंत्री के रूप में शिंजो की सेवानिवृत्ति अंतरराष्ट्रीय परिषदों में एक वास्तविक खालीपन छोड़ देगी जहां वह लंबे समय से सम्मानित नेता रहे हैं। भविष्य में भी उनके योगदान हमेशा याद रखा जाएगा।