2008 में आर्थिक मंदी के कुछ ही महीनों बाद मार्च 2009 में चीन और रूस ने एक नई “ग्लोबल करेंसी” का प्रस्ताव रखा था जिससे दुनिया में अमेरिकी मुद्रा डॉलर का प्रभाव काम किया जा सके। चीन और रूस की मांग एक ऐसी वैश्विक मुद्रा की थी जिसका किसी एक देश से संबंध न हो और लम्बे समय तक स्थिर रह सके, जिससे यह क्रेडिट आधारित राष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था में अंतर्निहित कमियों को दूर कर सके।
लेकिन दुनिया के देश नई वैश्विक मुद्रा के सिद्धांत पर आपसी सहमति नहीं बना सके जिसके चलते अमेरिकी डॉलर का आधिपत्य वैश्विक अर्थव्यवस्था में बना रहा, व्यापार और दुनिया भर के बैंकिंग सेक्टर में बना रहा।
आज दुनिया में देशों के बीच होने वाले मुद्रा विनिमय में 90 प्रतिशत विनिमय अमेरिकी डॉलर में होता है। दुनियाभर के देशों के बैंकों में जमा कुल विदेशी मुद्रा भंडार में 60 प्रतिशत हिस्सा अमेरिकी डॉलर का है। अमेरिका के बाहर आज लैटिन अमेरिका के देशों के साथ सोवियत संघ में रहे देशों सहित कई अन्य जगहों पर डॉलर चलन में है।
2010 में दुनिया के कई अर्थशास्त्री, जिनमें भारतीय अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यम भी थे, जो मानते थे कि चीन कि मुद्रा युआन 2020 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में डॉलर का स्थान ले लेगी। परंतु आज भी युआन डॉलर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता। यहां तक कि चीन का सेंट्रल बैंक भी अमेरिकी डॉलर का भंडार रखने के मामले में दुनिया में सबसे आगे हैं। अपने BRI प्रोजेक्ट के लिए भी चीन ने अपने इसी विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल किया है। यह बताने के लिए काफी है कि क्यों आज भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में डॉलर का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। यही कारण है कि यह सोचना की चीन का युआन निकट भविष्य में डॉलर का स्थान ले लेगा, यह केवल कोरी कल्पना ही है। जब तक वैश्विक व्यवस्था फ्री ट्रेड और वैश्वीकरण के सिद्धांत से जुड़ी है तब तक यह सम्भव नहीं।
परंतु कोरोना के फैलाव के बाद दुनिया भर की अर्थव्यवस्था डांवाडोल है। सभी देश अपने घरेलू व्यापार में संरक्षण की नीति अपना रहे हैं। फ्री ट्रेड के विरुद्ध आज जो माहौल बना है उसके चलते निश्चित ही डॉलर की स्थिति खराब होगी।
आज आर्थिक संरक्षण की नीति के कारण ऐसा कहा जा सकता है कि आने वाले समय में देश अपने व्यापारिक घाटे को शुन्य करने की का प्रयास करेंगे। अर्थात जितना निर्यात उतना ही आयात। ऐसे में इस बात की संभावना अधिक है कि देशों के बीच डॉलर के बजाए अपनी राष्ट्रीय मुद्राओं में ही व्यापार शुरू हो। यदि ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से विदेशी व्यापार के लिए ऐसे देशों को केवल डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार बनाने के बजाए अपने विदेशी मुद्रा भंडार को अधिकाधिक विकल्पों तक बढ़ाना होगा। जिस देश से आपको अधिक व्यापार करना है आपको उस देश की मुद्रा का भंडार भी रखना पड़ेगा। ऐसे में विदेशी मुद्रा भंडार की डॉलर पर निर्भरता कम होगी और उसका अन्य मुद्राओं में विकेंद्रीकरण होगा। ऐसे में डॉलर का प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था से कम होगा, उसका मार्केट शेयर घटेगा, लेकिन इस स्थान की भरपाई चीन की मुद्रा युआन के बजाए विभिन्न देशों की राष्ट्रीय मुद्राओं से होगी।
कई देशों ने इस ओर प्रयास शुरू भी कर दिए हैं और अपने व्यापारिक साझीदार देशों के साथ मुद्रा विनिमय कर रहे हैं, जिससे उनकी डॉलर पर निर्भरता कम हो। भारत ने भी UAE, जापान, श्रीलंका आदि देशों के साथ ऐसे समझौते किये हैं।
रूस, जिसने 2009 में वैश्विक करेंसी की बात उठाई थी, अमेरिका के प्रतिबंधों के कारण अमेरिकी डॉलर में व्यापार नहीं कर सकता। ऐसे में यूरो उसके लिए बेहतर विकल्प बना है। रूस आज यूरोप और चीन दोनों के साथ व्यापार में यूरो का इस्तेमाल कर रहा है। पुतिन रूस की अर्थव्यवस्था को डॉलर मुक्त करने के अपने प्रयास में सफल हो रहे हैं।
आने वाले समय में अन्य देश भी ऐसे कदम उठाएंगे। ऐसे में यह तय है कि आने वाले समय में वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुद्रा भंडार के विकेंद्रीकरण का चलन बढ़ेगा।