काँग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव त्यागी के असामयिक मृत्यु ने एक बार फिर हमारा ध्यान उस विषय की ओर खींचा है, जिसके बारे में पता सभी को है, पर चर्चा शायद ही कोई करना चाहे। हम बात कर रहें हैं टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाली डिबेट्स की, जो डिबेट्स कम, चिल्लाहट का पैमाना मापने का केंद्र अधिक लगता है।
अभी कल ही आज तक पर एक राष्ट्रीय विषय पर काँग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव त्यागी और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ संबित पात्रा में तीखी बहस चल रही थी। इतने में अचानक से राजीव त्यागी को हृदयाघात हुआ और जब तक उन्हे अस्पताल पहुंचाया जाता, वे परलोक सिधार चुके थे। इससे संबित पात्रा और चर्चा का आयोजन करा रहे पत्रकार रोहित सरदाना सहित चर्चा पर उपस्थित सभी सदस्य सकते में आ गए, और सभी ने अपना-अपना शोक जताया। हालांकि, कुछ ऐसे भी लोग थे, जो इसके लिए संबित पात्रा और रोहित सरदाना को दोषी ठहराने लगे और #ArrestSambitPatra एवं #सरदानापत्रकारनहींहै जैसे ऊटपटाँग ट्रेंड भी चला रहे थे।
परंतु, ये समस्या केवल एक विशेष चैनल या विचारधारा तक सीमित नहीं है। जिस समस्या पर वास्तव में चर्चा होनी चाहिए, वो है न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित होने वाले डिबेट्स में चर्चा के नाम पर हंगामे को बढ़ावा दिये जाने की कुप्रथा है। चाहे रिपब्लिक हो, आज तक हो या फिर न्यूज़ 24 किसी भी प्राइम टाइम डिबेट को आप उठा के देख लें, वहाँ चर्चा कम और चिल्लाना ज़्यादा होता है। इससे न केवल कानों पर भी नकारात्मक असर पड़ता है, अपितु चर्चा में भाग लेने वाले लोगों पर भी इसका घातक असर पड़ सकता है।
हमें संबित पात्रा का एक मौलवी को खरी-खोटी सुनाने का अंदाज़ ‘मनोरंजक’ लग सकता है, मेजर जनरल जीडी बख़्शी का वामपंथियों को आक्रामक तरह से आड़े हाथ लेना ‘दमदार’ लग सकता है, पर वो कहते हैं न, ‘अति सर्वत्र वर्जयते’, यानि किसी भी चीज़ की अति वर्जित है। द प्रिंट पर आलोक जोशी ने इस विषय पर बेहद सटीक विचार प्रस्तुत किए हैं। उनके अनुसार, “जब पत्रकारिता का एक पैमाना ‘लंग पावर’ यानी फेफड़े का दम हो जाए, तो टीवी डिबेट के तनाव का जानलेवा हो जाना अनहोनी तो नहीं है। ‘लंग पावर’ मेरी इजाद नहीं है, इस देश के बहुत बड़े समाचार नेटवर्क के आला अफसर की जुबान से निकली तारीफ़ है जो उन्होंने अपने एक खास होनहार सितारे की शान में ट्रॉफी की तरह पेश की थी और अक्सर करते रहते थे।“
यही लंग पावर को प्राथमिकता दिया जाना आज राजीव त्यागी की मृत्यु का एक प्रमुख कारण है, और यदि इसपे लगाम नहीं लगाई गई, तो मेजर जनरल जीडी बख़्शी जैसे व्यक्ति भी आगे किसी अनहोनी के शिकार हो सकते हैं। हालांकि, यही एक कारण नहीं जिसके कारण आज भारतीय न्यूज़ चैनलों पर चर्चा उपहास का विषय बना हुआ है।
एक और कारण है, जिसमें स्वयं राजीव त्यागी और अनेकों राजनीतिज्ञ भी शामिल थे, वह है टीवी डिबेट्स पर गाली गलौज करना। राजीव त्यागी ने तो एक समय पत्रकार अमीश देवगन पर किसी विषय पर असहमति होने पर काफी अपशब्द सुनाये थे। लेकिन अपशब्दों का सबसे घातक असर पड़ता है उन किशोर युवाओं पर, जो खबरों के विभिन्न पहलुओं को देखने के लिए यदा कदा इन चर्चाओं को भी देखते हैं, और ऐसे गालियों से ये धारणा बिठा दी जाती है कि ये सब तो काफी नॉर्मल है, जिससे हमारे देश के भविष्य पर भी संदेह के बादल छाने लगते हैं।
एक समय किसी चैनल के मालिक ने कहा था, “आज पत्रकारिता में नॉइज़ सबसे महत्वपूर्ण है।“ जिस तरह टीवी डिबेट्स का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है, उससे इस व्यक्ति की बात कहीं से भी गलत नहीं लगती। इस पर टीएफ़आई के संस्थापक अतुल मिश्रा ने बेहद सटीक विश्लेषण किया था, “जो संबित पात्रा को राजीव त्यागी की मृत्यु के लिए दोषी ठहरा हैं, उनसे बड़े जड़बुद्धि नहीं देखे। पर इस बात से कतई नहीं इनकार किया जा सकता कि भारतीय मीडिया के टीवी डिबेट्स बेहद निकृष्ट और जाहिल किस्म के है, जिनका कोई निष्कर्ष नहीं होता। जिस प्रकार कैसीनो में कभी भी जुआ लगाने वाला नहीं, अपितु कैसीनो का प्रबंधन विजयी होती है, उसी प्रकार से एक न्यूज़ चैनल की डिबेट में चैनल ही विजयी होता है” –
Those blaming Sambit Patra for Rajiv Tyagi’s death are colossal fools. But we cannot deny that debates on Indian Media are vulgar,violent, virulent and full of yells & shouts. There is never any conclusion
In a casino,only the casino wins. In a news debate only the channel wins.
— Atul Kumar Mishra (@TheAtulMishra) August 12, 2020