पूर्वी भूमध्यसागर क्षेत्र में बढ़ रहे तनाव के बीच फ्रांस ने अपने जंगी जहाज और राफेल जेट्स को ग्रीस की मदद के लिए भेजने का फैसला किया है। इस फैसले से तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन, जो अभी तक आँख दिखाते थे, वो अब शातिदूतों की तरह बातें करने लगे हैं। तुर्की की बढ़ती आक्रामकता के कारण फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुएल मेक्रों (Emmanuel Macron) ने ग्रीस की सहायता का फैसला किया है। उन्होंने ट्वीट करते हुए कहा, “मैंने ग्रीस सहित हमारे सभी यूरोपीय साथियों के सहयोग से आने वाले दिनों में, पूर्वी भूमध्य सागर पर फ्रांसीसी सैन्य उपस्थिति को अस्थायी रूप से मजबूत करने का फैसला किया है।”
J’ai décidé de renforcer temporairement la présence militaire française en Méditerranée orientale dans les prochains jours, en coopération avec les partenaires européens dont la Grèce.
— Emmanuel Macron (@EmmanuelMacron) August 12, 2020
जैसे ही फ्रांस के जहाज इस इलाके में पहुंचे, तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने अपने सुर बदल लिए। उन्होंने बयान देते हुए कहा, “पूर्वी भूमध्यसागर क्षेत्र में बढ़ रहे तनाव के समाधान का रास्ता बातचीत से ही निकलेगा….”इन सब के बावजूद, हम इस बात में भरोसा करते हैं कि, कॉमन सेंस ही अधिक शक्तिशाली होती है। चाहे वह विवादित क्षेत्र हो या बातचीत की मेज हो, दोनों जगह हम अंतराष्ट्रीय कानूनों के तहत ही बातचीत करते हैं और अपने पड़ोसियों से अच्छे संबंध रखने के पक्षधर हैं…. हम शांतिपूर्ण मार्ग के जरिये राजनैतिक समाधान चाहते हैं।”
गौरतलब है कि, ये वही एर्दोगन हैं जिन्होंने हाल ही में ग्रीस-तुर्की-साइप्रस के विवादित क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों की खोज के लिए अपने जहाज भेजे थे। इन सभी जहाजों को तुर्की की नौसेना सुरक्षा भी दे रही थी। इसके बाद ग्रीस ने जवाबी कार्यवाही करते हुए तुर्की के जहाजों को काफी नुकसान पहुंचाया था।
अब जब ग्रीस ने खुलकर तुर्की से भिड़ंत की है और फ्रांस भी मामले कूद गया है, तो तुर्की के राष्ट्रपति ने कॉमन सेंस की बातें शुरू कर दी हैं। बता दें कि, ये वही एर्दोगन हैं जो इस्लामिक मुल्कों का नया खलीफा बनने का ख्वाब देख रहे हैं। हाल ही में उन्होंने इज़राइल स्थित पवित्र यहूदी मंदिर, टेम्पल माउंट को लेकर भी विवाद पैदा करने का प्रयास किया है। इसके अलावा वो लगातार भारत विरोधी गतिविधियों में भी शामिल हो रहे हैं।
लेकिन इस बार फ्रांस ने उनको सही जवाब दिया है। दरअसल एर्दोगन का लक्ष्य सिर्फ भूमध्यसागर क्षेत्र पर प्रभाव डालना नहीं है, बल्कि वो पूरे मध्य एशियाई क्षेत्र में अपना एजेंडा चलाना चाहते हैं। उन्होंने लीबिया में भी विद्रोहियों को समर्थन देना शुरू किया है जो संयुक्त राष्ट्र सहित अमेरिका और यूरोप से समर्थन प्राप्त वहाँ की नागरिक सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
हालांकि, ग्रीस, तुर्की और फ्रांस NATO के सदस्य हैं और NATO के नियमों के अनुसार एक सदस्य देश दूसरे सदस्य देश पर आक्रमण नहीं कर सकता। लेकिन, एर्दोगन ने राष्ट्रपति बनने के बाद उन सभी नीतियों को बदलना शुरू कर दिया जिन्हें तुर्की पारंपरिक रूप से अपनाता रहा है। वास्तव में एर्दोगन तुर्की के खलीफा जैसी हैसियत चाहते हैं इसीलिए वो ऐसे विवादों को हवा दे रहे हैं। लेकिन इस बार जब फ्रांस ने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया है, तो एर्दोगन शांतिदूत बनने पर मजबूर हो गए हैं।