“मेरी बिल्ली-मुझको म्याऊँ”, जर्मनी की Indo-pacific रणनीति देखकर चीन सदमे में दर्द-भरे Articles लिख रहा है

जर्मनी

कोरोना के बाद से ही चीन को लेकर यूरोप की नीति बेहद अस्थिर रही है। जर्मनी के नेतृत्व वाले यूरोपियन यूनियन ने इस दौरान अमेरिका और चीन के बीच एक संतुलन बनाने की भरपूर कोशिश की। हालांकि, अब इस समीकरण में भारत की एंट्री भी हो चुकी है। जर्मनी अब चीन से ज़्यादा तवज्जो अमेरिका-भारत की उभरती साझेदारी को दे रहा है। आज अमेरिका-चीन और भारत-चीन के बीच बढ़ते तनाव के कारण वैश्विक राजनीति का केंद्र Indo-pacific बन चुका है। Indo-pacific में पहले ही अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसी बड़ी ताक़तें बड़ी ही सक्रियता से चीन के सामने चुनौती पेश कर रही हैं। इसी बीच समय की ज़रूरत को भाँपते हुए जर्मनी ने भी हाल ही में अपनी Indo-Pacific नीति को जारी किया है, जिसने चीन को दुविधा में डाल दिया है।

जर्मनी ने कुछ दिनों पहले ही भारत को केंद्र में रखकर अपनी Indo-pacific रणनीति को जारी किया है। जर्मनी ने इस नीति में यह स्वीकार किया है कि अगर 21वीं सदी में किसी देश को विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहना है तो उसे Indo-pacific में अपना योगदान देना ही होगा। Indo-pacific नीति को अपनाकर जर्मनी ने अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका-चीन के बीच जारी शीत युद्ध में अमेरिका का पक्ष चुन लिया है, जिसके कारण चीनी सरकार के नियंत्रण वाली चीनी मीडिया अब यूरोप को अपने निशाने पर लेने लगी है।

उदाहरण के लिए Global Times ने एक लेख लिखा जिसमें उसने यह दावा किया कि यूरोप का Indo-pacific क्षेत्र में दखलंदाज़ी करने का कोई अधिकार नहीं है, और ना ही इसके लिए उसके पास पर्याप्त सैन्य शक्ति है। Global Times ने लिखा “जर्मनी दशकों से अपनी सॉफ्ट पावर और अमेरिका/Nato द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा व्यवस्था पर निर्भर रहा है, ऐसे में उसके पास आज के समय कोई दमदार सेना मौजूद नहीं है। ऐसे में जर्मनी और यूरोप चाहकर भी Indo-pacific पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते हैं, और ना ही उनका यहाँ कोई अधिकार बनता है”।

चीन को सबसे बड़ा झटका इस बात से लगा है कि अब यूरोप अमेरिका की नीति को स्वीकार कर रहा है और उसपर अमल भी कर रहा है, जिसका सीधा मतलब यह है कि Indo-pacific की लड़ाई में अमेरिका-भारत के सामने चीन कूटनीतिक तौर पर और ज़्यादा अलग-थलग पड़ गया है। Global Times ने अपने लेख में यह बताने की पूरी कोशिश की कि कैसे जर्मनी और यूरोप को “राष्ट्रवादी और आक्रामक” अमेरिका से बचे रहने की ज़रूरत है। GT के मुताबिक “ट्रम्प प्रशासन एकतरफा कार्रवाई करने और राष्ट्रवादी व्यापार नीतियों को बढ़ावा देने में विश्वास रखता है, जिसके कारण यूरोप और अमेरिका के व्यापार सम्बन्धों में तनाव चल रहा है। ऐसे अमेरिका से यूरोप को सावधान रहना चाहिए। यूरोप को अमेरिका के लिए अन्य बड़ी ताकतों के साथ रिश्ते खराब नहीं करने चाहिए”। GT की भाषा से साफ पता लग रहा है कि Indo-pacific क्षेत्र में यूरोप और अमेरिका के गठजोड़ और यूरोप और भारत के गठजोड़ से चीन के लिए मुश्किलें और ज़्यादा बढ्ने वाली हैं।

चीन अब यह साबित करने में लगा है कि जर्मनी और यूरोप Indo-pacific पर कोई प्रभाव डाल ही नहीं सकता है, जो पूरी तरह गलत है। EU दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आर्थिक पावरहाउस है। अमेरिका के बाद इसकी दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। वर्ष 2018 में EU की GDP 15.5 ट्रिलियन डॉलर्स थी, जबकि चीन की GDP सिर्फ 14.3 ट्रिलियन डॉलर ही थी। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी इकॉनमी होने के नाते EU केवल Indo-pacific को ही नहीं, बल्कि स्वयं चीन को भी प्रभावित कर सकता है। ऐसे में Global Times को ख्याली पुलाव पकाने से बचना चाहिए।

असल में जर्मनी और EU द्वारा Indo-pacific क्षेत्र में कदम रखने के फैसले से चीन को बड़ी पीड़ा पहुंची है। वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ चुके चीन के लिए यह एक और कूटनीतिक झटका है। अमेरिका, भारत और अन्य पूर्वी ताकतों से तनाव के बीच उसे यूरोप में ही एकमात्र आशा की किरण नज़र आ रही थी। चीन को अब अहसास हो गया है कि यूरोपियन यूनियन और चीन के रास्ते भी अलग-अलग हैं और मंज़िल भी!

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