भौतिक विज्ञान का एक शब्द है “वैक्युम” जिसका अर्थ होता है खालीपन। जब भी कहीं वैक्युम बनता है तो आस पास की शक्तियां उस वैक्युम को भरने के लिए दौड़ पड़ती हैं। राजनीतिशास्त्र में इसी शब्द पर बना है “पावर वैक्युम” या “पावर वोइड”। आज अगर जियोपॉलिटिक्स को देखा जाए तो ‘मिडिल ईस्ट’ कहा जाने वाला भाग, अमेरिका के जाने से इसी ‘पावर वैक्युम’ का सामना कर रहा है और इस पावर वैक्युम या खालीपन को भरने के लिए कई देश अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं। एक तरफ रूस और भारत भी इस रेस में हैं तो वहीं चीन पहले से कोशिश में जुटा था। परंतु जिस तरह से पिछले कुछ महीनों में फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने शतरंजी चाल चली है और अपनी उपस्थिती बढ़ाई है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि मिडिल ईस्ट पर प्रभुत्व के इस संघर्ष में फ्रांस एक बड़ी ताकत बनकर उभर रहा है और वह चीन को पटखनी देगा।
हाल के दिनों में, फ्रांस ने चार महत्वपूर्ण मिडिल ईस्ट के विवादों का प्रबंधन करने की क्षमता दिखाई है- तुर्की द्वारा उकसाये जा रहे लीबिया युद्ध, लेबनान संकट, पूर्वी भूमध्य सागर में तुर्की की घुसपैठ और इराकी कुर्दिस्तान में तुर्की के ड्रोन हमलों पर। इससे फ्रांस का दावा कई गुना बढ़ चुका है।
दरअसल, अगर मिडिल ईस्ट का इतिहास देखा जाए तो 20वीं शताब्दी की शुरुआत या यूं कहे पहले विश्व युद्ध के बाद से ही उस क्षेत्र में किसी न किसी बाहरी महाशक्ति का प्रभुत्व अधिक रहा है। 1990 में ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म के बाद से मुख्यतः अमेरिका मध्य पूर्व में प्रमुख सैन्य शक्ति रहा है। परंतु अब ट्रम्प प्रशासन लगातार अपने सैनिकों को घर बुला रहा है और मिडिल ईस्ट को छोड़ना चाहता है। चाहे वो अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को कम करना हो, या इराक से या फिर सीरिया से, अमेरिका अब नहीं चाहता है कि वह अपने सैनिकों को किसी अन्य देश की लड़ाई में भेजे। यही कारण है कि अमेरिका के इस तरह से मिडिल ईस्ट छोड़ कर जाने से एक पावर वैक्युम की स्थिति पैदा हो चुकी है।
इसी पावर वैक्युम को भरने के लिए चीन ने अपने आर्थिक, राजनीतिक और कुछ हद तक सैन्य उपस्थिती में काफी वृद्धि की है। आज चीन इस क्षेत्र के कई देशों के लिए सबसे बड़ा व्यापार भागीदार और बाहरी निवेशक बन चुका है। मिडिल ईस्ट के साथ चीन का संबंध 2013 में शुरू की गई बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) से और बढ़ी तथा वर्ष 2015 तक चीन आधिकारिक तौर पर कच्चे तेल का सबसे बड़ा वैश्विक आयातक बन गया जो मिडिल ईस्ट से आती थी।
BRI के जरीये चीन ने फिर सैन्य तथा राजनीतिक उपस्थित भी बढ़ाना शुरू किया। उदाहरण के तौर पर सीरिया और यमन के संकट में मध्यस्थता के प्रयासों में हिस्सा लेना, ईरान परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए तेहरान को राजी करने में भूमिका निभाना। इसके अलावा, चीन ने जिबूती में अपने पहले विदेशी सैन्य अड्डे की स्थापना की और साथ ही पाकिस्तानी बंदरगाह ग्वादर का संभावित सैन्यीकरण कर एक महत्वपूर्ण समुद्री chokepoints हॉरमुज़ और बाब अल-मंदब के स्ट्रेट के पास सैन्य उपस्थिति बढ़ाई। चीन कई मध्य पूर्वी देशों को हथियारों की आपूर्ति भी कर रहा है भले ही वह एक छोटे पैमाने पर हो। अब चीन ने ईरान के साथ 25 वर्षीय समझौता कर उस देश को अपने काबू में कर लिया है।
चीन ने अल्जीरिया, मिस्र, ईरान, सऊदी अरब और यूएई के साथ-साथ जिबूती, इराक, जॉर्डन, कुवैत, मोरक्को, ओमान, कतर और तुर्की के साथ व्यापक रणनीतिक साझेदारी स्थापित की है।
यानि देखा जाए तो अब तक चीन अमेरिका द्वारा छोड़े गए खालीपन को भरने का भरपूर प्रयास कर रहा था। पर अब चीन के इन मंसूबों पर पानी फिरने वाला है क्योंकि अब इस क्षेत्र में पावर वैक्युम के इस संघर्ष में मिडिल ईस्ट के पुराने खिलाड़ी फ्रांस ने अपनी धमक दे दी है।
मैक्रॉन अपने एक्शन से यह दावा कर रहे हैं कि फ्रांस मिडिल ईस्ट में शांति और स्थिरता लाने के लिए शक्ति का उपयोग करने हेतु तैयार है।
अमेरिका के जाने के बाद शी जिनपिंग ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें फ्रांस से मिडिल ईस्ट में टक्कर मिलेगी लेकिन फ्रांस अपने ऐतिहासिक रूप से मजबूत जड़ों और तेल के खज़ानों पर दांव के कारण मैक्रों ने फ्रांस को दोबारा मिडिल ईस्ट के खेल में उतार दिया है।
पिछले डेढ़ महीने में, राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने दो बार लेबनान का दौरा किया है और एक बार ईराक का दौरा किया जिसमें वह इराक के राष्ट्रपति बरहम सालेह (Barham Salih), प्रधानमंत्री मुस्तफा अल-कदीमी और कुर्दीस्तान क्षेत्रीय सरकार के राष्ट्रपति नेतिरवन बरज़ानी के साथ बैठक कर चुके हैं।
सितंबर में मैक्रों ने अपने इराक की यात्रा, के दौरान उन्होंने इराकी संप्रभुता पर जोर दिया और कुर्दिस्तान क्षेत्र की स्वायत्तता के लिए अपना समर्थन दिया। जब किसी ने लेबनान की गंदगी में हाथ लगाने की कोशिश नहीं की तब मैक्रों वहां गए और चीन समर्थित हिजबुल्ला हो चुनौती दी।
वे तुर्की के खिलाफ खड़े हो कर पूर्वी भूमध्य सागर में साइप्रस और ग्रीक अधिकारों का समर्थन कर रहे हैं। मैक्रों ने उस क्षेत्र में फ्रांसीसी सैन्य उपस्थिति को भी बढ़ा दिया है, एक हेलिकॉप्टर वाहक सहित नौसेना इकाइयों को तैनात किया है और पूर्वी भूमध्य सागर तक फ्रिगेट तक तैनात कर दिया है। लीबिया युद्ध में पहले से ही राफेल तुर्की के खिलाफ अपनी गर्जना कर रहे हैं।
जब तुर्की की राष्ट्रपति एर्दोगन कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड सरकार का समर्थन करते हुए त्रिपोली को ध्वस्त कर रहे थे तब अधिकांश यूरोपीय शक्तियां फेंससीटर बनी हुई थी। उस दौरान मैक्रों ने हफ़्तेर के नेतृत्व वाली लीबियाई राष्ट्रीय सेना (LNA) को covert military मदद भेजी थी वहीं राफेल लड़ाकू विमानों ने तुर्की की कई सैन्य चौकियों को नष्ट कर दिया था।
यानि आज के दौर में देखा जाए तो मैक्रों एकमात्र पश्चिमी नेता हैं, जिन्होंने सभी मोर्चों पर उभरते चीनी सहयोगी तुर्की के खिलाफ खड़े हुए है। इसके अलावा तुर्की के खिलाफ खड़े होने से फ्रांस को प्रमुख खाड़ी शक्तियां जैसे सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का भी सहयोग मिलने लगा है जो फ्रांस को और अधिक राजनयिक उपस्थिती बढ़ाने में मदद करेगा।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लीबिया, इराक, और लेबनान और साइप्रस के जल क्षेत्रों में फ्रांस की गहरी दिलचस्पी है। अफ्रीका में तेल का सबसे बड़ा भंडार और प्राकृतिक गैस का पांचवां सबसे बड़ा भंडार है, यही वजह है कि फ्रांसीसी ऊर्जा कंपनी टोटल लगभग सात दशकों से लीबिया में काम कर रही है। वहीं इराक की कंसोर्टियम में, इसी कंपनी की 22.5 प्रतिशत हिस्सेदारी है और जो हाफया तेल क्षेत्र को नियंत्रित करता है।
मिडिल ईस्ट के लिए मैक्रों का बड़ा संदेश यह है कि फ्रांस उस नाजुक सुरक्षा स्थिति का प्रबंधन करने के लिए तैयार है जो एक जिम्मेदार शक्ति के अभाव में आसानी से नियंत्रण से बाहर हो सकती है।
यानि आज देखा जाए तो मिडिल ईस्ट में पैदा हुए पावर वैक्युम को भरने के लिए एक तरफ चीन है जो तुर्की और ईरान जैसे Rogue nations की मदद कर रहा है और उसकी दोस्ती उसके फायदे तक सीमित है तो वहीं दूसरी तरफ फ्रांस है जो तुर्की और हिजबुल्ला जैसी ताकतों को आड़े हाथो ले रहा है। मौजूदा समय में मिडिल ईस्ट में फ्रांस के पास अधिक मित्र जैसे लेबनान, इराक, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, मिस्र, ग्रीस और साइप्रस हैं तथा इन देशों का राजनयिक समर्थन प्राप्त है। जबकि चीन के BRI की पोल खुलने और ऋण जाल के एक्सपोज होने के बाद बेहद कम उम्मीद है कि कोई भी देश चीन पर भरोसा करेगा। इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि मैक्रों ने मिडिल ईस्ट में हस्तक्षेप कर चीन की महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेर दिया है।