चीनी विदेश मंत्री की ताज़ा यूरोप यात्रा में जितनी बेइज्जती हुई है उतनी शायद दुनिया के किसी नेता की नहीं हुई होगी। अपने देश की छवि को सुधारने के लिए चीनी विदेश मंत्री वांग यी इटली, नीदरलैंड्स, फ्रांस, नॉर्वे और जर्मनी गए थे। इस दौरे का प्रमुख उद्देश्य था चीन के विरुद्ध अमेरिका के विश्वव्यापी अभियान को निष्फल करना और यूरोप के साथ अपने संबंध मजबूत करना।
पर हुआ इसका ठीक उल्टा। जहां-जहां वांग यी गए, वहाँ-वहाँ उन्हें बेइज्जती का सामना करना पड़ा। यात्रा के पहले पड़ाव में इटली के विदेश मंत्री ने हांगकांग में चीन द्वारा हो रहे अत्याचार पर सार्वजनिक रूप से आलोचना की। इस यात्रा का अंत भी इसी बेइज्जती से हुआ, जब जर्मनी के विदेश मंत्री हीको मास ने खुलेआम हांगकांग से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को हटाने की बात की। इतना ही नहीं, जर्मनी ने परोक्ष रूप से चीन पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी भी दी।
पर बात यहीं पर खत्म नहीं होती। इटली और जर्मनी के दौरे के बीच में भी जहां-जहां वांग यी गए, वहाँ-वहाँ उनकी जमकर खातिरदारी की गई थी। IPAC यानि Inter Parliamentary Alliance on China के सदस्यों ने हर कदम पर उनका पीछा किया और उन्हें चीन में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के लिए खूब खरी-खोटी भी सुनाई।
यह सारा प्रकरण रोम में ही शुरू हुआ, जब लंदन में बसे हांगकांग के लोकतंत्र समर्थक नेता नेथन लॉ ने वांग यी से हांगकांग पर हो रहे अत्याचारों के लिए जवाबदेही मांगी। इसके बाद नीदरलैंड्स में भी चीन को जमकर खरी-खोटी सुनाई गई। नीदरलैंड्स वैसे भी चीन से ज़्यादा दोस्ताना व्यवहार बनाने में कोई खास विश्वास नहीं रखता। इस बार तो डच विदेश समिति ने यी को स्पष्ट रूप से हांगकांग और शिंजियांग में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन पर चर्चा के लिए निमंत्रण भेजा। यी इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थे और उन्होंने स्पष्ट रूप से इस निमंत्रण को ठुकरा दिया।
नॉर्वे में तो वांग यी ने धमकियाँ देना शुरू कर दिया। नॉर्वे ईयू का सदस्य नहीं रहा है जिस कारण चीन इस देश के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता को बढ़ावा देना चाहता है। लेकिन वांग यी से ओस्लो में एक प्रेसवार्ता के दौरान पत्रकरों ने पूछ लिया कि यदि हांगकांग के नेताओं को नोबेल पुरस्कार दिया गया तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। वांग यी इस प्रश्न पर बुरी तरह तमतमा गए और उन्होंने नॉर्वे को धमकी दी कि, यदि हांगकांग के लोगों को नोबल शांति पुरस्कार दिया गया, तो अंजाम बहुत ही बुरा होगा।
इस प्रेसवार्ता ने ज़रूर चीन के 2010 वाले ज़ख्म पर मिर्ची लगा दी होगी। दरअसल साल 2010 में चीनी मानवाधिकार कार्यकर्ता लियू शाओबो को नोबल का शांति पुरस्कार दिया गया था। इससे नाराज़ होकर चीन ने नॉर्वे के साथ 2016 तक सभी प्रकार के कूटनीतिक रिश्ते तोड़ लिए थे।
इसके बाद वांग यी फ्रांस पहुंचे। वांग यी ने फ्रांस दौरे पर अमेरिका को घेरने के लिए कई अमेरिका विरोधी बयान दिये। लेकिन फ्रांस के विदेश मंत्री ने अपने पूरे भाषण में अमेरिका का उल्लेख तक नहीं किया, उल्टे उन्होंने चीन की दुखती रग पर हाथ रखते हुए हांगकांग और शिंजियांग में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन का मुद्दा ही नहीं उठाया ही, साथ ही साथ दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा की जा रही गुंडई को लेकर भी आक्रामक रुख अपनाया।
लेकिन यी के हौसले तब भी पूरी तरह पस्त नहीं हुए, क्योंकि उन्हें जर्मनी पर पूरा भरोसा था। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल के साथ चीन के काफी मधुर संबंध रहे हैं। ऐसे में वांग यी को इस बात की पूरी आशा थी कि, जर्मनी उन्हें निराश नहीं करेगा। पर यहाँ भी उन्हें ज़िल्लत ही हाथ लगी। जर्मन विदेश मंत्री ने भी चीन द्वारा किए जाये मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे को उठाया। इतना ही नहीं, जर्मनी ने परोक्ष रूप से चीन पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी भी दी। विदेश मंत्री हीको मास ने चीन को तत्काल प्रभाव से हांगकांग पर थोपा गया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून भी हटाने को कहा।
वांग यी ने इसके जवाब में इसे चीन के अंदरूनी मामले होने की बात को दोहराया पर मास को तनिक भी फर्क नहीं पड़ा। हीको मास के अनुसार यूरोप के अधिकतर देश एक दूसरे के साथ समन्वय बिठाके रखते हैं और यहाँ अब धमकियों का कोई स्थान नहीं रहा।
चीन के विदेश मंत्री की हालत इस दौरे के बाद ऐसी हो चुकी है कि, अब न घर के रहे और न ही घाट के। इस यूरोप यात्रा से यह दृष्टिकोण भी स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस के खात्मे के बाद चीन को दुनिया किस नज़रिये से देखेगी। कभी जो बीजिंग के सबसे घनिष्ठ मित्र थे, वे भी अब उससे मुंह मोड़ रहे हैं और चीन को उसकी करतूतों के लिए खूब खरी-खोटी सुना रहे हैं।