अक्सर यह देखने को मिलता है कि कूटनीतिक लाभ उठाने के लिए छोटे देश परस्पर दो बड़ी और विरोधी ताकतों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करते हैं। इस प्रकार इन छोटे देशों को दोनों बड़ी ताकतों से कूटनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक फायदे मिलते हैं। दक्षिण एशिया में श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देश दशकों से इसी नीति का पालन करते आए हैं। भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा का सबसे ज़्यादा फायदा इन्हीं देशों ने उठाया है। भारत और चीन के प्रभुत्व के बीच का संतुलन इन देशों की संप्रभुता की भी रक्षा करता है। उदाहरण के लिए आज नेपाल पर भारत से ज़्यादा प्रभुत्व चीन का है, जिसके कारण नेपाल की विदेश नीति भी अब बीजिंग के हाथों में जाती दिखाई दे रही है।
ट्रम्प प्रशासन के आने के बाद अमेरिका अपने आप को दुनियाभर के युद्धक्षेत्रों से बाहर निकाल रहा है। ट्रम्प यह पहले ही कह चुके हैं कि “उन्हें किसी और की लड़ाई नहीं लड़नी है”। ऐसी स्थिति में पश्चिमी एशिया में एक बड़ा vacuum बन गया है, जिसे चीन जल्द से जल्द भरना चाहता है। हालांकि, अरब के देश खुद ऐसा नहीं चाहते हैं। अरब के देश चीन के साथ आर्थिक और रणनीतिक रिश्ते तो मजबूत करना चाहते हैं, लेकिन वे नहीं चाहते कि चीन उनके देश में इतनी बड़ी ताकत बन जाये कि कल को उनकी विदेश नीति भी स्वतंत्र ना रह सके। इसिलिए एक तरफ जहां सऊदी अरब चीन की सहायता से अपने यहाँ nuclear power से संबन्धित yellow cake का प्लांट स्थापित कर रहा है, तो वहीं भारत में मौजूद सऊदी अरब का राजदूत भारत के साथ सैन्य सहयोग को बढ़ाने की मांग कर रहा है।
सऊदी अरब के कट्टर दुश्मन ईरान का भी यही हाल है। हाल ही में कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया था कि ईरान ने चीन के साथ 25 वर्षीय 400 बिलियन डॉलर की एक डील पर हस्ताक्षर किए हैं। उसके बाद माना गया था कि अब ईरान चीन के हाथों बिक गया है और यहाँ भारत के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। हालांकि, अब जिस प्रकार भारत के रक्षा मंत्री से लेकर भारत के विदेश मंत्री तक, लगातार ईरान के दौरे कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि ईरान भी अब चीन और भारत के बीच एक संतुलन स्थापित करना चाह रहा है, ताकि उनके यहाँ चीन ज़रूरत से ज़्यादा प्रभावी ना हो सके।
इसी प्रकार उत्तर में रूस भी चीन को काबू में रखने के लिए उसके खिलाफ India card खेलने से नहीं घबरा रहा है। पिछले वर्ष रूस ने भारत को प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर उसके Far East में निवेश करने का न्यौता दिया था। वर्ष 2019 में रूस ने भारत के प्रधानमंत्री को पांचवे Eastern Economic Forum कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया था। उस दौरान ही भारत ने रूस के Far East में 1 बिलियन डॉलर का निवेश करने और Gas और Oil सेक्टर में 35 हज़ार करोड़ के 50 समझौते पक्के किए थे। रूस के Far East में चीन पहले से ही सक्रिय है और उसी के रास्ते वह Arctic में भी अपना प्रभाव जमाना चाहता है। ऐसे में रूस नहीं चाहता कि उसके Far East को अकेला चीन ही हाई-जैक कर ले। रूस ने चीन को काबू में रखने के लिए वहाँ भारत को बुलाया है।
यही trend ASEAN देशों में भी देखने को मिल रहा है। लद्दाख में जिस प्रकार भारत ने चीन को पटखनी दी है, उसके बाद दक्षिण चीन सागर से सटे देशों का भारत के नेतृत्व में विश्वास बढ़ा है। 15 जून की गलवान घटना के बाद अब तक वियतनाम और फिलीपींस जैसे देश दक्षिण चीन सागर में भारत को आमंत्रित कर चुके हैं। वियतनाम के राजदूत ने भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन शृंगला से मुलाक़ात करते हुए कहा था कि “हम चाहते हैं कि भारत हमारे Exclusive Economic Zone में आकर तेल और गैस के लिए क्षेत्र में अन्वेषण करे”।
ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका की अब दूसरों देशों के अंदरूनी मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी है। इसके अलावा रूस जैसे देश चाहकर भी दूसरे देशों को कोई बड़ा आर्थिक पैकेज या ट्रेड डील नहीं दे सकते हैं, क्योंकि असल में रूस की अर्थव्यवस्था उतनी बड़ी है नहीं! ऐसे में आर्थिक और सैन्य दृष्टिकोण से भारत ही एकमात्र ऐसा देश बचता है जो दुनियाभर में चीन के एकाधिकार को चुनौती दे सके। दुनिया के देश जानते हैं कि अगर उनके देश में चीन को खुली छूट दे दी गयी तो चीन अपने हितों के लिए उनका किसी भी हद तक जाकर फायदा उठा सकता है, जैसा कि उसने Laos, श्रीलंका और कई अफ्रीकी देशों के साथ किया है। यही कारण है कि वे चीन के काबू में करने के लिए अपने यहाँ भारत को आमंत्रित कर रहे हैं।