NDA से अलग होने के बाद SAD की राजनीति पंजाब में दोबारा अलगाववाद और कट्टरपंथ को बढ़ावा दे सकती है

वोट की भूखी SAD अब कहीं पंजाब को दोबारा आग में ना झोंक दे

पंजाब

जब से शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए को छोड़ा है, तब से कयासों का सिलसिला शुरू हो गया है कि अब आगे क्या? कोई कह रहा है कि शिरोमणि अकाली दल अपनी अलग पहचान बना सकती है, तो कोई कहता है कि वह अपना सेक्यूलर एजेंडा जारी रखेगी। लेकिन चुनावी समीकरण और वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए एक कयास यह भी लगाया जा रहा है कि शिरोमणि अकाली दल पुनः खालिस्तानियों को बढ़ावा दे सकती है। भाजपा के साथ होने पर अकाली दल पर पहले खालिस्तानियों के प्रति नरम न होने की विवशता थी, परंतु अब ऐसी कोई मजबूरी नहीं है।

शिरोमणि अकाली दल पार्टी शिरोमणि गुरद्वारा प्रबन्धक कमेटी के युवा मोर्चे से बनी थी, जो इस समय पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और चंडीगढ़ का प्रबंधन संभालती है। परंतु 1996 के मोगा कॉन्फ्रेंस में अकाली दल ने पंथ विचारधारा से इतर पंथनिरपेक्ष विचारधारा को बढ़ावा दिया, और इसे सिद्ध करने के लिए अपना हेडक्वार्टर अमृतसर से चंडीगढ़ भी स्थानांतरित किया।

1997 में ही इसका असर दिखने लगा, जब अकाली दल ने भाजपा के साथ साझेदारी कर पहली बार पंजाब में सत्ता प्राप्त की, और पार्टी के संस्थापकों में से एक प्रकाश सिंह बादल पंजाब के मुख्यमंत्री बने।  2002 में वे सत्ता हार गए थे, परंतु 2007 में अकाली दल ने पुनः सत्ता में वापसी की, और 2017 तक प्रकाश सिंह बादल सीएम के पद पर बने रहे। लेकिन 2017 में भ्रष्टाचार, ड्रग्स कल्चर को बढ़ावा और कुशासन के कारण अकाली दल को सत्ता से हाथ धोना पड़ा, और 94 में से अकाली दल महज 15 सीटें ही जीत पाई। जले पर नमक छिड़कने वाली बात तो यह थी कि जो आम आदमी पार्टी किसी और राज्य में खाता तक नहीं खोल पा रही थी, वही पार्टी पंजाब में 20 सीटों पर विजयी होकर पंजाब की प्रमुख विपक्षी पार्टी बनने में कामयाब रही, जिसमें खालिस्तानियों के समर्थन का भी बहुत बड़ा हाथ रहा था।

इस समय शिरोमणि अकाली दल का अस्तित्व खतरे में है। जिस पार्टी ने ठेकेदारी और कमीशनखोरी से ही अपना अधिकांश जीवनयापन किया हो, वो भला सुशासन के सामने क्या ही टिकेगी। इस समय जहां केंद्र की राजनीति में भाजपा का बोलबाला है, तो वहीं राज्यो में टीआरएस और बीजेडी जैसे कद्दावर राजनीतिक दल भी उभर कर सामने आ रहे हैं। वहीं अकाली दल की बुरी किस्मत लोकसभा में भी यथावत रही, और पार्टी 13 सीटों में से महज 2 सीटों पर ही कब्जा कर पाई।

ऐसे में पार्टी को फिर से तर्कसंगत बनाने के लिए अकाली दल संभवत खालिस्तानी विचारधारा को बढ़ावा दे सकती है। ढाई दशक की नरमी काम न आने के कारण अब अकाली दल उग्रवादी विचारधाराओं को अपनाना चाहेगी, ताकि 2022 के विधानसभा चुनावों में उसे पंजाब में अपना खोया जनाधार मिले। ऐसे में मोदी सरकार और पंजाब की राज्य सरकार को इस बात पर सतर्क रहना होगा कि अकाली दल के वोटों की भूख में राज्य का बंटाधार न हो जाये।

पंजाब 80 और 90 के दशक की तरह अलगाववाद का गढ़ नहीं बन सकता है,वो समय जब न सिर्फ खालिस्तानियों का बोलबाला रहा, बल्कि कई निर्दोष हिन्दू और सिख भी मारे गए, जिसके कारण हिंदुओं को भारी संख्या में पंजाब छोड़ने पर विवश होना पड़ा। हालांकि, कश्मीरी पंडितों की तरह पंजाब से हिंदुओं के पलायन पर ज़्यादा गौर नहीं किया गया है, परंतु खालिस्तानियों के वर्चस्व के कारण पंजाब के माथे पर ये कलंक भी लगा है, जिसे मिटाने के लिए खालिस्तानियों और उन्हें बढ़ावा देने वाले संभावित राजनीतिक दलों पर लगाम लगाना बेहद आवश्यक है।

 

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