‘बेलारूस बना रूस और यूरोप का अखाड़ा’, बेलारूस को लेकर पुतिन और मर्केल ने एक-दूसरे को दी चेतावनी

यह पुतिन Vs मर्केल की लड़ाई है

बेलारूस

यूरोपीय देश बेलारूस में बिगड़ते हालात अब विश्व की जियोपॉलिटिक्स का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है। एक तरह रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इस पूर्व सोवियत संघ के देश पर अपना प्रभुत्व बनाए रखना चाहते हैं तो वहीं यूरोप के ताकतवर देश जैसे जर्मनी, इस अंतिम सोवियत देश को गिराना चाहते है।

दरअसल, 9 अगस्त को हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद से ही बेलारूस में बड़े स्तर पर चुनाव में हुए धांधलियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहा है। राष्ट्रपति चुनाव में एक बार फिर से Lukashenko की जीत हुई थी, जो बेलारूस में पिछले 26 वर्षों से सत्ता पर काबिज थे। चुनाव परिणाम में 80 प्रतिशत वोट Lukashenko ही मिलने की खबर के बाद बेलारूस के निवासी सड़क पर प्रदर्शन के लिए उतर आए। सभी यह जानते थे कि चुनावों में बड़ी धांधली हुई है।

बिगड़ते राजनीतिक हालात के बाद एक तरफ रूस ने Lukashenko को अपना समर्थन दिया है तो वहीं EU इस देश के कई अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाने की बात कर रहा है। वहीं जर्मनी बेलारूस के प्रदर्शनकारियों को अपना समर्थन दे रहा है और German Chancellor Angela Merkel ने Lukashenko को किसी प्रकार की सहायता देने से मना कर दिया और कहा कि किसी भी प्रकार का रूसी हस्तक्षेप इस मामले को और जटिल बना देगा।

एक तरफ पुतिन बेलारूस पर Lukashenko का शासन चाहते हैं जिससे उन्हें प्रभुत्व रखने में कठिनाई न हो। आज सभी यरोपीय देश तथा अमेरिका Lukashenko का साथ छोड़ चुके हैं जिससे अब उनके पास रूस की शरण में जाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं दिखाई दे रहा है। वहीं मर्केल चाहती हैं Lukashenko का शासन समाप्त हो जिससे बेलारूस से रूस का प्रभाव कम हो और वहाँ लोकतान्त्रिक माहौल बने।

अभी तक जो स्थिति है उसे देख कर यह स्पष्ट है कि पुतिन अभी तक अपने इरादों में सफल रहे हैं। उन्होंने न सिर्फ Lukashenko का समर्थन किया है बल्कि हालात बिगड़ने पर पुलिस सहायता का भी आश्वाशन दिया है। यही नहीं, उन्होंने राष्ट्रपति के मतदान के परिणामों की समीक्षा करने की संभावना को खारिज कर दिया जो दिखाता है कि रूस सत्ता में बदलाव नहीं चाहता।

रूस और बेलारूस कई मायनों में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। बेलारूस के एक पूर्व सोवियत देश होने के कारण वहाँ की भाषा और संस्कृति दोनों रूस से जुड़े हुए हैं। यह यूरोपीय देश रणनीतिक रूप से पूर्वी यूरोप के केंद्र में स्थित है, जो रूस के पश्चिमी हिस्से में आता है। यही कारण है कि रूस इस देश को अपने प्रभाव में रखना चाहता है जिससे वह यूक्रेन सहित अन्य यूरोपीय देशों पर उसे बढ़त हासिल हो जाए।

सोवियत संघ के टूटने के बाद भी बेलारूस के रूस के साथ संबंध गहरे थे परंतु हाल के वर्षों में Alexander Lukashenko ने क्रेमलिन को नजरंदाज करते हुए हुए यूरोप और चीन के साथ घनिष्ठ संबंध की नीति पर काम करने लगे थे। 9 अगस्त के मतदान से ठीक पहले, Lukashenko ने रूस पर बेलारूसी मतदान प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का भी आरोप लगाया था।

अब जब बेलारूस में उनके खिलाफ माहौल बन चुका हैं तब कोई भी देश उनके समर्थन में नहीं है, जिसके बाद रूस ही उनका एक मात्र सहारा है। अब पुतिन ने Alexander Lukashenko को अपना समर्थन देते हुए उनके द्वारा किया जाने वाले संवैधानिक सुधारों को भी अपना समर्थन दिया है जिससे राष्ट्रपति की ताकत और बढ़ जाएगी।

ऐसे कठिन परिस्थितियों में रूस Lukashenko को यह भरोसा दिलाना चाहता है कि सभी कदम पर रूस उनके साथ है। यही कारण है कि रूस के प्रधानमंत्री Mikhail Mishustin गुरुवार को बेलारूस की यात्रा पर जाएंगे और उसके कुछ हफ्तों के बाद Alexander Lukashenko के भी रूस की यात्रा कर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मिलने की संभावना है।

बेलारूस की अशांति के बीच रूस बेलारूस में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और उसने यूरोप को बेलारूस से दूर रहने की चेतावनी दी है, जिसके बाद यूरोप भी रूस के इस बर्ताव से भड़क गया था। बेलारूस के मामले पर पुतिन और German Chancellor Angela Merkel ने फोन पर बातचीत की थी जिसमें रूस ने जर्मनी के हस्तक्षेप पर ज़ोर दे कर कहा कि बेलारूस में किसी विदेशी हस्तक्षेप अस्वीकार्य है और उससे तनाव बढ़ सकता है। जर्मनी लगातार प्रदर्शनकारियों को अपना समर्थन जता रहा है। वहीं, बर्लिन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यूरोपीय संघ के नेताओं के साथ एक वीडियो कांफ्रेंसिंग के बाद बोलते हुए, एंजेला मर्केल ने कहा कि बेलारूस में 9 नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव “न तो उचित और न ही स्वतंत्र थे” और इसलिए परिणाम को यूरोपीय संघ मान्यता नहीं देगा।

बेलारूस की रणनीतिक स्थिति के कारण यह दोनों पक्षों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि यह देश जर्मनी सहित EU और रूस के बीच में एक सैंडविच की तरह पीस रहा है। यूरोपीय संघ बेलारूस को छोड़कर सभी यूरोपीय देशों में रूस को दूर रखने में सक्षम रहा है। लातविया, एस्टोनिया और लिथुआनिया यूरोपीय संघ के सदस्य बन गए हैं और इसलिए उन्हें मास्को की तुलना में ब्रुसेल्स के करीब माना जाता है। अब EU चाहता है कि बेलारूस भी रूस की पकड़ से बाहर आए।

वहीं अगर पुतिन बेलारूस पर अनौपचारिक कब्जा कर लेते हैं तो वह यूक्रेन को घेरने में सफल हो जाएंगे और लगभग 1000 किमी यूक्रेनी-बेलारूसी सीमा के साथ रूसी सैनिकों की तैनाती को सक्षम हो जाएगा। यह किसी से छुपा नहीं है कि क्रिमिया के बाद अब रूस की नजर यूक्रेन को हथियाने की है।

मास्को बेलारूस के अंदर रूसी सैन्य ठिकाना स्थापित करना चाहता है। साथ ही वहाँ के सभी रणनीतिक औद्योगिक केन्द्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। अगर रूस बेलारूस में अपनी शक्ति स्थापित करने में सफल हो गया तो यह पूर्वी यूरोप में भू-राजनीतिक परिदृश्य को बदल देगा।

यही कारण है कि आज बेलारूस को ले कर EU और रूस एक दूसरे के सामने खड़े हैं। यूरोपीय संघ रूस के प्रभाव को कम करने के लिए बेलारूस में लोकतंत्र को हथियार बना रहा है। इसलिए, जैसे-जैसे बेलारूस पुतिन के करीब जा रहा है वैसे-वैसे यह पूर्वी यूरोपीय देश तेजी से मर्केल और पुतिन के बीच युद्ध का मैदान बनता जा रहा है।

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