प्रणब मुखर्जी: वो नेता जो सिर्फ गांधी परिवार के स्वार्थ के कारण प्रधानमंत्री नहीं बन सके

प्रणब दा ने कांग्रेस के पतन को पहले ही भांप लिया था

प्रणब मुखर्जी

pc; ब्लूमबर्ग क्विंट

भारत के पूर्व राष्ट्रपति और भारत रत्न प्रणब मुखर्जी का 84 वर्ष की आयु में सोमवार शाम निधन हो गया। प्रणब मुख़र्जी के निधन से देश ने एक अनमोल रत्न खोया है लेकिन उनके जाने के बाद भी कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो हमेशा याद रहेंगी।

प्रणब मुखर्जी न सिर्फ एक बेहतरीन नेता थे, बल्कि कांग्रेस के संकटमोचक भी थे। इसके बावजूद कांग्रेस ने उन्हें कभी उचित महत्व नहीं दिया। दो बार, यानि साल 1984 और 2004 में उन्हें प्रधानमंत्री बनने से जानबूझ कर रोका गया। इसका एकमात्र कारण था उनका गाँधी परिवार से ना होना।

इंदिरा गांधी की सरकार में वो इंदिरा के बाद सबसे ताकतवर नेता थे। गांधी परिवार के करीबी और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एम एल फोतेदार ने अपनी किताब, ‘द चिनार लीव्स’ में लिखा है कि, इंदिरा गांधी के बाद प्रणब मुखर्जी और पीवी नरसिम्हा राव को कांग्रेस पार्टी का सर्वेसर्वा माना जा चुका था। लेकिन कुछ नेताओं द्वारा उनके बेटे राजीव गांधी को राजनीति में लाने के फैसले के बाद सब कुछ बदल गया था।

साल 1969 में प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस ने राज्यसभा भेजा जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। प्रणब दा साल 1982 में वित मंत्री का पद संभालते हुए इंदिरा गांधी के इतने विश्वासपात्र बन गए कि, प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वो ही कैबिनेट मीटिंग्स की अध्यक्षता करते थे।

साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, सरकार में नंबर 2 होने के नाते उन्हें पीएम पद का दावेदार माना जा रहा था। स्वयं प्रणब मुखर्जी भी यही मानते थे, लेकिन कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने प्रणब को किनारे कर राजीव गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया। जब राजीव गांधी पीएम बने तो, उनके केबिनेट में प्रणब मुखर्जी को जगह भी नहीं दी गयी। उसके बाद प्रणब दा ने कांग्रेस से किनारा कर स्वयं की पार्टी बनाई। हालाँकि, मतभेद खत्म होने के बाद में उस पार्टी का विलय कांग्रेस में ही हो गया।

इसके बाद उन्हें पीएम बनने का एक और मौका साल 2004 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी के बाद मिला था। साल 2004 में जब कांग्रेस सत्ता में वापस आई, तब भारी विरोध के कारण सोनिया गांधी ने पीएम पद लेने से मना कर दिया था। सोनिया के इस फैसले से एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में प्रणब मुखर्जी के प्रधानमंत्री बनने की चर्चाएं होने लगी थीं। लेकिन सोनिया गांधी को यह पता था कि, अगर सत्ता की बागडोर प्रणब मुखर्जी को दे दी गई तो गांधी परिवार का राजनीतिक अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा। इसलिए सोनिया गांधी ने सबसे योग्य नेता प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री न बनाकर उनकी जगह मनमोहन सिंह को चुना था। ऐसा इसलिए ताकि पर्दे के पीछे से गांधी परिवार का नियंत्रण सत्ता और पार्टी पर बना रहे।

इसके बाद कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार के युवराज राहुल गांधी का उदय हुआ। राहुल गांधी के लिए PM पद सुरक्षित रहे, इसलिए सोनिया गांधी ने संभावित प्रतिद्वन्द्वी प्रणब मुखर्जी को साल 2012 में राष्ट्रपति बना कर उन्हें सक्रिय राजनीति से दूर कर दिया। प्रणब दा ने इस पद को सहर्ष स्वीकार कर लिया और वो देश के 13वें राष्ट्रपति चुन लिए गए।

अगर यह कहा जाए कि, प्रणब दा ने साल 2012 में ही नरेंद्र मोदी की उठती लहर को महसूस कर लिया था तो यह गलत नहीं होगा। उन्हें पता था कि, आने वाले वर्षों में एक ऐसी लहर आने वाली है जिसमें कांग्रेस देश भर से बह जाएगी। और साल 2014 के आम चुनावों में हुआ भी वही। कांग्रेस 206 सीटों से 44 तक सिमट कर रह गयी और कांग्रेस पार्टी का राहुल गांधी को पीएम बनाने का सपना सपना धरा रह गया।

जब प्रणब मुखर्जी को देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया था तब राहुल गांधी, सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन उस समारोह में शरीक तक नहीं हुए थे। एक रिपोर्ट के अनुसार राहुल गांधी को राष्ट्रपति भवन द्वारा इस समारोह के लिए आमंत्रित किया गया था लेकिन वो अनुपस्थित रहे। कांग्रेस का तो यह इतिहास ही रहा है कि, वह गांधी परिवार के सदस्यों को छोड़ कर किसी अन्य सदस्य को राष्ट्रीय स्तर पर महत्व नहीं देती है। शायद यही वजह है कि, आज यह पार्टी एक मज़ाक बन कर रह गयी है। देश के सबसे बड़े Statesman के रूप में गिने जाने वाले प्रणब मुखर्जी के योगदान को देश सदा याद रखेगा। उनकी राजनैतिक दृढ़ता और त्याग को हमेशा याद रखना ही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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