रक्षा क्षेत्र में निजीकरण को लेकर आए दिन सरकार पर निशाना साधा जाता है। आर्डिनेंस फैक्ट्री के निजीकरण को लेकर अब चर्चायें और सरकार की तैयारियां दोनों ही तेज हो गईं हैं जिसकी वजह ढुलमुल रवैया और लेट लतीफी, गुणवत्ता की कमी से OFB की साख पर बट्टा लगा है। ऐसे में कर्मचारियों का विरोध तो जारी है, लेकिन सरकार आर्डिनेंस फैक्ट्रीज के निजीकरण को बिना किसी बाधा के आगे बढ़ाने की दिशा में प्रयासरत दिखाई दे रही जो कि देश हित में आवश्यक है।
सरकार का बड़ा फैसला
दरअसल, 16 मई को केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश में OFB को निजीकरण की ओर ले जाने का एक बड़ा कदम उठाते हुए डिफेंस सेक्टर में 74 प्रतिशत एफडीआई का ऐलान कर दिया। विदेशी निवेश की सीमा 49 से 74 फीसदी करने पर फैक्ट्री बोर्ड का निगमीकरण किया जाएगा जिससे रक्षा समेत वित्तीय क्षेत्र में भी एक बड़े सुधार के तौर पर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि रक्षामंत्री राजनाथ पहले ही आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत देश में रक्षा क्षेत्र के 101 उपकरणों के आयात पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। इस पर वित्त मंत्री ने बयान दिया कि इन सामानों में छोटे उत्पाद ही नहीं बल्कि लघु समेत उच्च वर्ग के कई उत्पाद शामिल हैं। जिसमें असाल्ट राइफल्स से लेकर तकनीकी उत्पाद और लाइट ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट भी होंगे। इन सभी का उत्पादन अब देश में ही होगा। वहीं प्रति वर्ष इन प्रतिबंधित उत्पादों की संख्या बढ़ाई जाएगी। परन्तु क्या ये संंभव हो पायेगा?
आएफबी का बड़ा दायरा
देश में रक्षा उत्पादन क्षेत्र में आर्डिनेंस बोर्ड सबसे पुराने सरकरी संगठनों में से एक है। इसके अंतर्गत 41 आर्डिनेंस फैक्ट्री, 13 आर्डिनेंस सेंटर, 9 आर्डिनेंस इंस्टीट्यूट हैं। जिनमें करीब 80,000 कर्माचारी कार्यरत हैं। ऐसे में इनका विरोध इस फैसले पर महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है लेकिन राष्ट्र हित में सरकार द्वारा इसे नजरंदाज करना लाजमी है क्योंकि OFB पर अनेकों प्रश्न चिन्ह लगे हुए हैं। इन सवालों का इसके जिम्मेदारों के पास न कोई ठोस जवाब है न को प्रभावशाली हल।
कार्यशैली पर सवाल
OFB के निजीकरण पर सवाल उठाने वालों को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट पर गौर करना चाहिए जो बताती है कि ओएफबी के अंतर्गत बनने वाले रक्षा उपकरणों की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। सीएजी की पिछले पांच वर्षों की रिपोर्ट के मुताबिक ओएफबी अपने उत्पादन के लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाई है। ये 50 फीसदी तक ही सिमट जाता है किन्तु यदि ओएफबी अच्छे रक्षा उपकरण बना कर भेज रही होती तो इस बात को भी नजरंदाज किया जा सकता था लेकिन इन उपकरणों की गुणवत्ता इतने निम्न स्तर की हो गई है कि सेना को इनके बने हथियारों को इस्तेमाल करने में दिक्कतें हो रही हैं।
आर्मी लगातार इसको लेकर सवाल उठाती रही है। मई 2019 में ही आर्मी ने OFB द्वारा बनाए गए गोला-बारूद, युद्धक टैंकों, और आर्टलरी समेत डिफेंस गनों की गुणवत्ता पर नाराजगी जाहिर करते हुए रक्षा मंत्रालय से सीधे हस्तक्षेप करने की मांग की थी, जिसके बाद आर्मी और ओएफबी के बीच मतभेद साफ दिख गया था। आर्मी का कहना है कि खराब सामानों से न केवल पैसों का नुक़सान होता है बल्कि दुर्घटनाओं में सैनिकों की जान को भी खतरा रहता है। कई बार तो जम्मू-कश्मीर में मुठभेड़ के दौरान जब सैनिकों ने आतंकियों पर ग्रेनेड अटैक किया तो वो फटे ही नहीं। जो OFB के कर्मचारियों और उसकी ढुलमुल कार्यशैली को दिखाता है।
न सुधार न बदलाव को तैयार
गौरतलब है कि जब-जब ऐसे निजीकरण की चर्चायें होती है तो कर्मचारी हड़ताल शुरू कर देते हैं। बात साल 2000 की हो या 2019-2020 की, इतना वक्त गुजरने के बावजूद इनकी कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं आया है। जिसके चलते हमारे देश को रक्षा उपकरणों का आयात करना पड़ता है जिसमें हजारों करोड़ का बेजा खर्च आता है। यहीं नहीं इन OFB के बने उपकरण इतने निम्न और असहज होते हैं कि छोटे-छोटे विदेशी देश भी इन्हें नहीं खरीदते हैं और इसके चलते निर्यात तो हो ही नहीं पाता है।
ऐसे में जानकारों का मानना है कि अगर भारत को आत्मनिर्भर अभियान के तहत रक्षा उपकरणों का उत्पादन करना है तो OFB के निगमीकरण के फ़ैसले को अडिग रखते हुए लागू करना चाहिए, जो कि एक कड़वी लेकिन असरदार दवा साबित होगी।