आरजेडी के बड़े नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने दुनिया को अलविदा कहने से पहले उनके साथ पार्टी में अन्याय को लेकर लालू यादव को एक पत्र लिखा था जो ये जताता है कि पार्टी के एक बेहतरीन नेता और भरोसेमंद शख्स को किस तरह से आरजेडी द्वारा परिवार और पुत्र मोह के कारण साइड लाइन किया जाता है और परिवार के बाहर कोई कितना भी निष्ठावान क्यों न हो उसे पार्टी मे रहते हुए अपमान का घूंट ही पीना पड़ता है। रघुवंश के सफल राजनीतिक इतिहास और आरजेडी के बिगड़ते रवैए से केवल बेपर्दा होती है तो बस परिवारवाद की जहरीली हकीकत। परंतु उनकी लिखी गई चिट्ठी पर भी राजद के नेताओं ने राजनीति शुरू कर दी , जो कि यह दिखाता है कि लालू की पार्टी किस तरह निरंतर पतन के नजदीक पहुँच रही है।
क्या रहा चिट्ठी विवाद
रघुवंश प्रसाद द्वारा लिखे गए चिट्ठी को भी अब लालू यादव की पार्टी मानने से इंकार कर रही है उनके राज्यसभा सांसद अखिलेश सिंह ने कहा कि वे रघुवंश बाबू से एक सप्ताह पहले मिले थे लेकिन उस वक्त भी ऐसी कोई बात नहीं थी। रघुवंश बाबू उस समय भी लालू प्रसाद की ही तरफदारी कर रहे थे। उन्होंने दावा किया कि यह चिट्ठी जबर्दस्ती लिखवाई गई है। अखिलेश ने कहा कि रघुवंश बाबू अपनी लड़ाई पार्टी में रहकर लड़ते थे, ऐसे में इस प्रकरण की घोर निंदा होनी चाहिए।
आरजेडी विधायक भाई वीरेंद्र ने आरोप लगाया कि रघुवंश सिंह के पत्र में सरकार ने साजिश की है। कोई भी व्यक्ति आईसीयू से पत्र नहीं लिख सकता है। आरजेडी एमएलसी सुबोध राय ने पूछा कि भला आईसीयू में भर्ती इंसान चिट्ठी कैसे लिख सकता है। सुबोध ने कहा कि कोविड के बाद रघुवंश बाबू से मेरी मुलाकात हुई थी। उन्होंने कहा था कि आरजेडी छोड़ने का सवाल ही नहीं है, बावजूद इसके ऐसी चिट्ठी पर सवाल खड़ा होता है। सरकार चिट्ठी पर सियासत कर रही है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो लालू परिवार रघुवंश प्रसाद के आखिरी चिट्ठी से भी कोई सबक न लेकर उल्टे आरोपों पर सफाई देने में लगी है।
पार्टी का कद्दावर चेहरा
रघुवंश प्रसाद सिंह का राजद में 32 वर्षीय लंबा राजनीतिक इतिहास उनके हुनर को दिखाता है। 1977 में यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी से पहली बार विधायक बनने वाले रघुवंश कर्पूरी ठाकुर की सरकार में मंत्री भी रहे थे। 5 बार की विधायकी फिर 1995 में विधानसभा अध्यक्ष और लालू के हारने पर 1999 में लोकसभा में राजद के मुख्य नेता का पद… इन सारे ही कामों का दायित्व रघुवंश ने पार्टी के लिए बखूबी निभाया और मनरेगा योजना के कायाकल्प को लेकर तो उनकी प्रशंसा आज भी की जाती है।
लेकिन 2014 में वैशाली लोकसभा सीट से चुनाव में मात खाने के बाद आरजेडी के इस कद्दावर नेता का करियर ग्राफ ढलान की ओर जा रहा था। न्यायिक हिरासत के कारण रांची जेल में बंद लालू यादव की पूरी राजनीति पिछड़ों और ओबीसी जाति के इर्द-गिर्द रही है जो हमेशा पिछड़ी जातियों में सामाजिक न्याय और समरसता की वकालत करते हैं। ऐसे में रघुवंश प्रसाद पार्टी में सवर्णों के प्रतिनिधि के तौर पर भी मौजूद थे। उनके जरिए ही पार्टी ने सवर्णों के बीच अपनी थोड़ी जगह बनाई थी। लालू की सोशल इंजीनियरिंग में फिट बैठने वाले रघुवंश तब पार्टी लाइन से बिफर गए जब 2019 में सवर्णों के आरक्षण के मुद्दे पर आरजेडी ने विरोध की लाइन ली और उस वक्त रघुवंश ने बागी तेवर दिखाते हुए कहा कि पार्टी को अपना एजेंडा फिर से देखना चाहिए जिसमे सवर्णों को 5 फीसदी आरक्षण की बात कही गई थी।
होने लगी थी अनदेखी
एक वक्त था जब पार्टी की रैलियों में लालू यादव रघुवंश के भाषण से पहले कहते थे, ‘अब ब्रम्हा बोलेंगे’ उस वक्त उन्हें पूरी छूट थी। लेकिन लालू के सक्रिय राजनीति से दूर होने पर जिस तरह से लगातार रघुवंश को नजरंदाज किया गया उससे वो बेहद आहत थे। एक रैली का जिक्र करते हुए उन्होंने तेजस्वी पर दबे शब्दों में हमला भी बोला कि तेजस्वी उन्हें बोलने के लिए पांच मिनट देते हैं जबकि लालू जी कभी ये सीमाएं लगाने की कोशिश नहीं कर सके। समय-समय पर रघुवंश प्रसाद ने पार्टी के प्रति बाहरी और आंतरिक रूप नाराजगी तो जताई लेकिन परिवारवाद की इस महत्वाकांक्षी राजनीति में उन्हें अहमियत न मिल सकी।
लालू का पुत्र मोह
एक ऐसा नेता जिसने पार्टी के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, जिसके नाम अनेकों राजनीतिक और सामाजिक सफलताओं का श्रेय हो, उसे लालू यादव ने केवल अगड़ी जातियों के वोटबैंक को साधने का एक माध्यम बनाकर ही रखा और रघुवंश का यही दर्द उनके हाथ से लिखे आखिरी पत्र में छलक आया। यद्यपि लालू ने उनका इस्तीफा अस्वीकार किया हो लेकिन रघुवंश के इस पत्र ने ये दिखा दिया कि परिवारवाद की इस राजनीति में भले ही आप कितना ही अच्छा प्रदर्शन करें लेकिन राजनीतिक दल आपको अपने पुत्रमोह के चलते एक वक्त के बाद साइड लाइन ही करेंगे।
लालू यादव के बेटों की राजनीतिक सूझबूझ को लेकर हल दिन सवाल उठते हैं कि कैसे वो अपने पिता के कद के एक बड़े नेता के लिए आसानी से पार्टी छोड़कर जाने की बात कह देते हैं। यही नहीं तेज प्रताप जैसे नए-नवेले राजनीति की इंटर्नशिप कर रहे नेता ने तो आरजेडी को समुद्र और रघुवंश को एक लोटा पानी घोषित कर दिया था। ये सारी बातें रघुवंश को आहत कर रही थी और वो सारा दर्द उनके उस आखिरी खत में था जिसके जरिए उन्होंने न केवल लालू के पुत्रमोह की पोल पट्टी खोली बल्कि लालू को पार्टी में किए अपने 32 वर्षों के संघर्षों की याद दिलाई।
रघुवंश अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन दुनिया छोड़ने के पहले उन्होंने लालू यादव की राजनीति का वो काला सच सामने रखा है जिसमें परिवारवाद का बोलबाला है। जाने से पहले रघुवंश का ये रुख इस बात का पर्याय है कि सामाजिक न्याय के नाम पर बनी राजद अब अपने ही शीर्ष और अनुभवी नेताओं की अनदेखी कर रही है जिसके परिणाम उसके लिए ही खतरनाक होंगे। परंतु लालू की पार्टी उनके जाने के बाद भी उनके चिट्ठी रूपी वसीयत का मजाक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है।