मध्य एशिया में एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई हो रही है, पर दुनिया का ध्यान कहीं और है

तुर्की यहाँ अपनी जड़ें मजबूत करने के फिरका में है!

मध्य एशिया

दुनियाभर के भू-राजनीतिक विश्लेषकों का सारा ध्यान जहां एक तरफ इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर केन्द्रित है तो वहीं, मध्य एशिया में भी एक बड़ी राजनीतिक टक्कर देखने को मिल रही है। मध्य एशिया के देश यानि कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए अब तक केवल भारत, रूस और चीन जैसे देश ही एक दूसरे के आमने-सामने दिखाई देते थे लेकिन अब एक देश और है जो इन तीन बड़ी ताकतों की लड़ाई में अपनी टांग अड़ाने की कोशिश कर रहा है और वह है तुर्की!

दक्षिण Caucasus क्षेत्र में चल रहे अज़रबैजान और अर्मेनिया के विवाद में कूदकर तुर्की ने अपनी मंशा साफ ज़ाहिर कर दी है कि वह भी इस क्षेत्र पर अपना प्रभाव बढ़ाकर दुनिया में अपनी कूटनीतिक ताकत को बढ़ाना चाहता है ताकि बाकी मोर्चों पर भी तुर्की को इसका लाभ मिल सके। इसके अलावा यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से भी भरपूर है। ऐसे में तुर्की को इस क्षेत्र से बहुत कुछ हासिल हो सकता है, और इसीलिए वह अब मध्य एशिया में अपनी जड़ों को मजबूत करने की फिराक में है।

अभी तक हम देख चुके हैं कि कैसे चीन, भारत और रूस इस क्षेत्र पर अपना वर्चस्व बढ़ाने की भरपूर कोशिश करते रहते हैं। उदाहरण के लिए चीन ने इन देशों में बड़े पैमाने पर इनफ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया, इन्हें कर्ज़ दिया और इन्हें अपने महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट BRI में भी शामिल किया। इसके अलावा ईरान में चाबहार पोर्ट के एक टर्मिनल को विकसित कर भारत ने भी अफ़ग़ानिस्तान के जरिये मध्य एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की है। वहीं चूंकि मध्य एशिया के ये सभी देश पहले USSR का हिस्सा थे, इसीलिए यहाँ पर हमेशा से ही रूस का दबदबा देखने को मिलता रहा है। हालांकि, अब इन तीन देशों के बीच तुर्की भी अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा है।

एर्दोगन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जो मतभेदों को विवादों में बदलना बखूबी जानते हैं। अगर तुर्की, अर्मेनिया-अज़रबैजान विवाद से दूर रहने का फैसला लेता, तो आज यह संघर्ष इतना भीषण न हुआ होता। इसी विवाद का फायदा उठाकर अब एर्दोगन मध्य एशिया की राजनीति में प्रवेश करना चाहते हैं। Nagorno-Karabakh क्षेत्र में घुसकर अज़रबैजान का समर्थन कर तुर्की ने यह साफ संकेत दे दिया है अब वह इस क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाने के लिए विघटनकारी कदम चल सकता है। उदाहरण के लिए तुर्की ने इस विवाद को भड़काने के लिए न सिर्फ सीरिया से अपने आतंकवादियों को अज़रबैजान की सहायता के लिए रवाना किया, बल्कि अपने लड़ाकू जहाजों को भी वहाँ तैनात कर दिया।

दक्षिण Caucasus क्षेत्र में तुर्की की दिलचस्पी का एक और कारण यह भी है कि यह क्षेत्र तुर्की को आसानी से मध्य एशिया के सभी देशों के साथ जोड़ सकता है। इस क्षेत्र में सिर्फ अर्मेनिया ही एक ऐसा देश है जो तुर्की के इन मंसूबों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा है और ऐसे में उसने Nagorno-Karabakh क्षेत्र को अर्मेनिया से “आज़ाद” कराने का पुरज़ोर समर्थन किया है।

भू-मध्य सागर, उत्तरी अफ्रीका और सीरिया में इतने मोर्चों पर लड़ाई लड़ने वाले एर्दोगन यूं ही मध्य एशिया के देशों के इस विवाद में नहीं कूदे हैं। उनका मकसद है कि तुर्की को मध्य एशिया के देशों के साथ जोड़कर इतिहासिक ओट्टोमान एंपायर की विरासत को पुनर्जीवित किया जाए। इसी दिशा में हाल ही में तुर्की ने उइगर मुसलमानों के पक्ष में आवाज़ उठाते हुए चीन से उइगरों की धार्मिक आज़ादी का सम्मान करने की अपील भी की है, और शिंजियांग क्षेत्र में मानवाधिकारों की रक्षा की उम्मीद जताई है, जो अपने आप में ही हैरानी की बात है।

दरअसल, तुर्की उइगरों का मुद्दा उठाकर कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान जैसे देशों पर अपनी छाप छोड़ना चाहता है, जो खुद चीन में उइगर मुसलमानों की स्थिति को लेकर चिंता में हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि शिंजियांग के Concentration Camps में करीब 15 लाख क़ज़ाक मूल के ऊईगर और 2 लाख किर्गिस्तानी मूल के मुसलमान भी कैद हैं।

मध्य एशिया में शुरू से ही रूस की काफी मजबूत पकड़ रही है लेकिन रूस की कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था के चलते ये देश अब रूस के हाथों से निकलते जा रहे हैं और ऐसे में इस क्षेत्र में एक बड़ा vacuum बन रहा है, जिसे भरने के लिए अब तुर्की भी हाथ-पैर मारना शुरू कर चुका है। तुर्की तो पहले ही सीरिया, लीबिया, साइप्रस जैसे क्षेत्रों में रूस के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है और अब उसने यही काम मध्य एशिया में शुरू कर दिया है।

तुर्की अपनी भू-राजनीतिक मंशाओं को साधने के लिए आतंकवाद, लड़ाकों और हिंसा के इस्तेमाल में ज़रा भी आनाकानी नहीं करता है, और यदि तुर्की की निगाहें मध्य एशिया पर पड़ती हैं तो वह इस क्षेत्र को भी आग में धकेलने से पीछे नहीं हटेगा। हालांकि, तुर्की की इस रणनीति का भारत और रूस मिलकर कैसे मुक़ाबला करते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा!

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